Friday, 12 September 2014

भलामानुषियत

भलामानुषियत

बचपन से भलामानुषियत का पाठ पढ़
मैने भी सोचा कुछ इच्छा करूं
हाथों की लकीरों की जगह, भले कर्मों में खुद की तकदीर पिरोऊं
बदलती इंसानी फितरत से अलग, अपने सपनों का इक जहां बनाऊं...
अपनी दुनिया के लिए मैंने भी खेल का सुंदर मैदान है देखा
मगर, उसका नया रूप मुझको अवाक कर बैठा
यूं ही निहाल हो गया सब कुछ खेल समझकर
अंतर्मन की टीस निकाल खुद को बेहाल देखकर...
खुद की राहों के मुसाफिर, इतना तो बता देते
कि लौट पंछी भी शाम ढले, चहचहाते दिल कुलबुला जाते
अनुभव, तल्ख़, खट्टे-मीठे, रास्तों में कितने मिले हैं
शूल के संग फूल भी तो, जिंदगी में अक्सर बिछे हैं...
मालूम है उड़ नहीं सकता आसमां में, फिर भी मस्ती से उसे छूं जाऊं
दूध की तरह शुद्ध, मृदुल हो, खुद की शैतानियत के भाव में मिट जाऊं
भलों के बदले भला कर दूं, मेहनत पर भविष्य की तस्वीर उकेरूं
ख्वाहिश है कुछ ऐसा जहां बनाऊं, हर जगह खुशियां ही पाऊं...
सपनों की रंगीनियत में था, कि अंतर्मन ने इतना पुकारा
उस मधुर आवाज से भी, बेवकूफियत ने कर लिया किनारा
कांटों से बने रास्तों को चुना, फिर भी नहीं मैं हारा
इस उम्मीद में कि इस हमनशीं चमन में ही है मेरा गुजारा...
कल्पना ही है मेरी प्रेरणा, सपने देखना नहीं छोड़ूंगा
हर मौसम में बहार लाने को, कभी न बिकने वाला पत्थर बनूंगा
जिंदगी की रंगीनियत में, खुले हाथ ही जीत जाउंगा
मौत के दिन भी देख चांद , उसे पाने की चाह में जी जाऊंगा...
सोचता था ना थकेंगे ये कदम, फिर भी चलना छोड़ दिया
अकेला दुनिया की भीड़ में, फिर भी नहीं जमाने को छोड़ा
है शेरियत जिंदगी में अब भी, फिर क्यों शब्द छोड़ देता है जहां
एक अदद पूरे सपने से मेरे, मुझे भी मिल सकती थोड़ी तृप्ति यहां...
राघवेंद्र मिश्र