एक तरफ हम 4जी और बुलेट ट्रेन की बात करते हैं और दूसरी तरफ देश के कई हिस्से में लोगों के पास भोजन (खाना), पानी और मकान नहीं है। एक तरफ खबरें बनती हैं कि फला सिलेब्रिटी की पार्टी में इतने करोड़ रुपए खर्च हुए या फला नेता के कार्यक्रम में इतने करोड़ खर्च। दूसरी तरफ खबर बनती है कि पार्टी के बाद छोड़ा हुआ खाना खाने के लिए लगी लंबी लाइन। यह अंतर क्यों और कैसे, एक गंभीर विषय है।
बात बुंदेलखंड की करते हैं। यह दो राज्यों की सीमाओं उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में आता है। दोनों जगह दो सरकारें हैं। यूपी में जहां अखिलेश यादव सीएम हैं, वहीं एमपी में शिवराज सिंह चौहान। दोनों को प्रोग्रेसिव कहा जाता है। दोनों विकास की बात करते हुए समय-समय पर अपनी उपलब्धियां गिनाते रहते हैं। एक तरफ केंद्र सरकार भी है, जो देश की तस्वीर बदलने के वायदे के साथ आई है। लगभग दो साल हो गए, शायद बुंदेलखंड उसे अभी तक नहीं दिखा। संभवत: सरकारें भी अब फेसबुक-ट्विटर पर चलने लगी हैं। जमीनी हकीकत से इत्तेफाक रखना कोई नहीं चाहता।
सरकारी आंकड़े की बात करें तो बुंदेलखंड में साल 1987 के बाद से अबतक 19 सूखे पड़ चुके हैं। जाहिर है, धीरे-धीरे लोगों को इसकी आदत भी पड़ गई होगी। लेकिन, इस बार स्थिति और बिगड़ गई है। लोगों के पास खाने के अनाज के साथ-साथ पीने के लिए पानी तक नहीं है। ग्राउंड वाटर बेहद नीचे जा रहा है। कई इलाकों में पानी खत्म हो चुका है। कुछ लोग गंदे नदी-नालों का पानी पीने को मजबूर हैं। पानी की तलाश में लोग जान तक गवां रहे हैं। जो सक्षम हैं, वह गांव छोड़कर शहर में पलायन कर रहे हैं। अक्षम संघर्ष कर रहे हैं और नहीं कर पा रहे तो सुसाइड कर रहे हैं।
एक सर्वे के मुताबिक, बुंदेलखंड में पिछले एक महीने में एक औसत परिवार ने महीने में सिर्फ 13 दिन ही सब्जी खाई। सामान्य परिवार भी महीने में सिर्फ 4 दिन ही दाल खा रहे हैं। वहीं, बिल्कुल गरीब परिवार के लोगों ने पूरे महीने में एक बार भी दाल नहीं खाई। 79 फीसदी परिवार पिछले कुछ महीने में कभी न कभी रोटी या चावल को सिर्फ नमक-चटनी के साथ खाने को मजबूर हुए हैं। जबकि, एक तिहाई से अधिक परिवारों को खाना मांगना पड़ा।
एक एनजीओ के सर्वे के अनुसार, यूपी के हिस्से वाले बुंदेलखंड में 375597 लोगों घर छोड़ पलायन कर चुके हैं। वहीं, एमपी के हिस्से वाले बुंदेलखंड से 2,183,877 लोगों ने घर छोड़ा है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार बुंदेलखंड में 2009 में 568, 2010 में 583, 2011 में 519, 2012 में 745, 2013 में 750 और 2014 तक 58 किसानों ने सुसाइड की। मतलब पिछले 6 साल में 3223 से अधिक किसानों ने सुसाइड की। गौर करिएगा, ये आंकड़े 2009 से हैं, जबकि किसान की मौतें इससे पहले से होती आ रही हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, ओलावृष्टि से भारी नुकसान से परेशान मार्च 2015 से जुलाई 2015 तक 350 से अधिक किसानों ने सुसाइड किया। अगस्त-सितंबर 2015 में बारिश नहीं होने पर अब तक 100 से अधिक किसान मौत को गले लगा चुके हैं।
तस्वीर साफ है। लोगों को रोटी, पानी नहीं मिल रहा है और परेशान लोग घर छोड़ पलायन कर रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो पलायन भी नहीं कर सकते वह मौत को गले लगा रहे हैं। सरकारी मदद कागज पर ही सिमट के रह जा रहे हैं। कमी कहां है, नहीं पता है। कौन जिम्मेदार है और कौन जवाबदेह है, नहीं पता। लेकिन, एक बात साफतौर पर कही जा सकती है कि अमीर-गरीब के बीच फासलें बढ़ रहे हैं। शायद इसीलिए गरीब मौत को गले लगा रहे हैं।