Saturday, 30 November 2013

नो कमेंट 21 वीं सदी है...

नो कमेंट 21 वीं सदी है...


अमीर बरबाद, ज्यादा खर्च करने में
गरीब बरबाद, दो जून कि रोटी के जुगत में,
घर का भोजन, बर्बाद पिज्जा-बर्गर में
और ये फास्ट फुड कर रहे बरबाद, मिलावट के चक्कर में
                                 नो कमेंट 21 वीं सदी है ...

देश की अर्थव्यवस्था बरबाद, कमजोर विदेश नीति में
जिसे हरित क्रांति का जनक (दोआबा पंजाब) कहा जाता, वो बरबाद NRI बनने में
NRI बरबाद, विदेशों में वेटर गिरी करने में,
और देश में आए विदेशी बरबाद, ठगी के चक्कर में
नो कमेंट 21 वीं सदी है…


धर्म हो रहा बरबाद, ज्यादा धार्मिक बनने के चक्कर में
स्वामी-सात्विक हो रहे बरबाद, खुद को भगवान साबित करने में
जनाब यहां भगवान को भी लोग कर रहे बरबाद , कंपटीशन के चक्कर में
और पैसा खर्च कर भक्त हो रहे बरबाद, प्रहलाद बनने की फितरत में                                                      
                                                     नो कमेंट 21 वीं सदी है...

लड़का बरबाद, लड़की और नशा में
लड़की बरबाद, फैशन और टशन में
स्कूल-कॉलेज हो रहे बरबाद, ज्यादा एलीट बनने में
और एलिट बरबाद खुद को साबित और मेंटेन करने में

                                नो कमेंट 21 वीं सदी है...

सब हैं परेशान, बस कुछ हैं आबाद और खुशहाल,
जो एक हाथ से लूटे सब और दूसरे से पूछे देश का हाल
उस पूछ में भी छुपे होते है कई राज,  सब पर भारी भाई-भतीजा और जातीवाद
भाई आज के समय में जो ज्यादा लूट सके, दुनिया उसी को करे सलाम

                                               नो कमेंट 21वीं सदी है...

Sunday, 24 November 2013

मेरे रियल हीरो, मेरे आदर्श





मेरे एक पोस्ट पर मेरे मोहल्ले के एक सज्जन ने कमेंट किया ‘’ apne pita ke raste par mat chalo bhi soch aapki akdam apne pita ki tarah hai’’  जब से ये कमेंट इन्होने किया है मन में अजीब सी खलबली है |

सामान्य कद, मजबूत काठी, मुंह में एक भी दांत नहीं (बचपन से पान खाने कि वजह से), बड़े जिगरे वाले, एकदम निडर बेबाक और बिलकुल साधारण जीवन जीने वाले मेरे पापा जी | नाम श्री जयनारायण (मिश्र इन्होंने 10 वीं क्लास में ही हटा दिया था) विचार से कम्यनिस्ट, दोस्तों के दोस्त, एक अतुलनीय पिता,पति ,भाई या यूं कह ले हर रिश्ते को 100% निभाने वाले व्यक्ति | शायद इसी वजह से उनके दोस्त उन्हें 24 कैरेट सोने जैसा हर रिश्ते को निभाने वाला मानते हैं | लेखनी ऐसी कि बस चर्चा का विषय ही बन जाती | चाहें वो क्राइम पर हो, स्पोर्ट्स पर हो या राजनीति पर एकदम दमदार | उनका लेख ‘नजरिया लाल सलाम, भारी जलपान पार्टी (भाजपा के लिए) या आश्वाशन गुरु का आश्वाशन तो मैंने संजो कर ही रख लिया है |  

32 सालों तक एक ही अखबार में पत्रकार रहे अपने पापा को जब भी मैंने देखा उनमें मुझे रियल हीरो ही नजर आया | अपने ऑफिस और काम के प्रति ईमानदार, समाज में हो रही चीजों के प्रति संवेदनशील | किसी बुराई या अत्याचार को खत्म करने के लिए किसी के आगे हाथ जोड़ना हो या उसे बीच बाजार गाली देना हो या फिर थप्पड़ मारना हो, उन्हें ज़रा भी समय नहीं लगता | 55 से ज्यादा उम्र हो जानें के बाद और 4 लड़कियों का कन्यादान करने के बाद आज भी किसी चीज को लेकर उनका उत्साह किसी यूथ से कम नहीं दिखता |
चुनावों में अगर कम्यूनिस्ट पार्टी का कोई कैंडिडेट खड़ा है तो अकेले ही सही उसका प्रचार करते | मैंने तो यहां तक देखा है कि गाड़ी पर कम्यूनिस्ट पार्टी का झंडा लगा कर वो अकेले ही निकल जाया करते थे | जरूरत पड़ने पर माइक से खुद ही नारा लगाना शुरू कर देते थें | अपने सोच को जीने के लिए वो शर्म नहीं करते और उन्हें जो सही लगता उसे करने में वो तनिक भी शर्म नहीं करते | अन्ना हजारे के आंदोलन में अकेले भूख हड़ताल पर बैठ जाना ये बिलकुल अलग तरीके से दर्शाता है कि एक आदमी सिर्फ सही आदमी का कैसे साथ देता है | शायद कुछ लोगों को उनकी इन चीजों से भी आपत्ति होती |


जबसे होश सम्हाला उनकी आवाज पर ही नींद खुलती थी और उनके पास जाता तो सुबह के समय से ही कोई ना कोई बैठा रहता | उनसे बतियाते हुए वो मेरा हाल चाल पूछते और फिर जल्दी से नहा कर और दाल रोटी खाकर (उनका पसंदीदा भोजन) वो घर से निकल जाते | उसके बाद उनसे देर रात ही मुलाक़ात होती वो भी अगर मैं जगा रहा तो | पूछने पर बताते आज फला आदमी का एक काम था तो आज फला आदमीं के साथ वहां चले गए थें |

दर्जनों लावारिश लाशों के अंतिम संस्कार का व्यवस्था करना हो या रास्ते में किसी गरीब को ठंड में सिकुड़ते देखकर अपनी शौल देना हो या अपना जूता, चौराहे पर किसी गरीब सब्जी वाले को पुलिस वाला मार रहा हो तो उसे ललकार कर उसका डंडा पकड़ लेना, मोहल्ले का हैंडपंप खराब हो या गंदा पानी आ रहा हो तो जल संस्थान के एमडी को बुलवा कर उनसे हैंडपम्प चलवाकर वही पानी पीने के लिए कहना, बिजली के लिए विधायक से लेकर अधिकारियों तक की खबर लेना उनके हमेशा के दिनचर्या में रहता | इन विषयों को अपनी लेखनी में उतार कर अधिकारियों के कान में मुद्दे डालना उनकी आदत रहती |


सच्चाई के लिए खुद के दोस्त या रिश्तेदार को भरे बाजार बेइज्जत कर देने कि वजह से कुछ लोग उन्हें पसंद भी नहीं करते | मगर स्वभाव से एकदम फक्कड़ उन्हें इन सब चीजों का कोई फर्क नहीं पड़ता | जो सही है तो बस सही है |

अपने दोस्तों के मुसीबत में सामने रखा खाना छोड़ कर बिना घड़ी में समय देखे खड़े रहने वाले मेरे पापा की सबसे खास बात है कि वो एक बार अगर किसी को अपना मान लिए तो फिर उसके लिए सब कुछ न्योछावर | और किसी चीज को करने कि जिद्द कर लें तो फिर कोई भी नहीं मना सकता | कुछ लोगों को इस से भी आपत्ति रहती है कि यार 21 वीं शदी चल रही है कुछ चीजों को इग्नोर मारना चाहिए लेकिन मेरे पापा नहीं | हर चीज के प्रति एकदम सम्वेदनशील |

मैंने उन्हें कुछ लोगों को पीटते हुए भी देखा है, कुछ लोगों का निवेदन करते हुए भी लेकिन हर जगह वो ईमानदारी दिखाते हैं | कोरे कागज की तरह जिंदगी बिता रहे हैं | किसी से कुछ नहीं छिपाना , कोई हाबा-डाबा नहीं बांधना |

हमलोगों को खुद का निर्णय लेने की पूरी स्वतंत्रता देना चाहें वो दीदी लोगों का कोई कोर्से करना हो पीएचडी, ब्यूटिशियन, ड्राइंग या कोई और या फिर मेरा क्रिकेट खेलना या छात्र संगठन से जुड़ कर राजनीति करना | जिसका जिधर भी इंट्रेस्ट रहा वो हमेशा हम लोगों का मार्गदर्शन किये | मेरी छात्र राजनीति में रुचि देखकर अच्छे छात्रनेताओं का उदाहरण दे कर मुझे हमेशा मोटिवेट किया | खुद के कम्यूनिस्ट विचार को न लादते हुए मुझे समाजवादी चंचल जी के प्रभावशाली भाषण, मोहन प्रकाश जी के साधारण व्यक्तित्व, कम्यूनिस्ट आनंद प्रधान जी के प्रेस विज्ञप्ति (जिसमें बिंदु और क्वामा तक कि गलती नही होती थी), कांग्रेसी अनिल श्रीवास्तव के डाउन टू अर्थ व्यक्तित्व या रत्नाकर त्रिपाठी के खुद्दारी और विषय पर पकड़ के बारे में बताते ताकि मैं उसमें भी आगे जाऊं तो संतुलित रहूं | मुझे कभी कुछ करने से नहीं रोके और जीवन जीकर उससे सीख लेने के लिए कहा |

दूसरे कि समस्याओं के लिए खुद चिंतित रहना या उसके लिए दिन-रात एक कर मदद करना उनकी आदतों में शुमार है | कुंड की सफाई की जिद्द में पैर तक सड़ा लेना (जिसे ठीक होने में 2-3 साल लग गए) ये भी उनका किसी काम कप करने की जिद्द ही है |

दोस्तों के लिए किसी भी गुंडा-बदमाश से भीड़ जाने में उन्हें तनिक भी डर नही लगता | अपने बचपन के दोस्त सुशील त्रिपाठी के मृत्यू पर बच्चों की तरह रोना, खाना ना खाना ये उनका अलग रूप भी मैंने देखा है | बेईमानी कोई भी करे खुद का करीबी या कोई और उसे मना करना , गाली देना ये उनकी अलग छवि दिखाता है | ऐसे शख्स जो ज्योति बसु के विचारों से भी सहमत हो और अन्ना हजारे के भी | उनकी बेबाकी से बहुत लोग डरते हैं | शायद इसीलिए कुछ लोग मुझे उन जैसा नहीं बनने कि सलाह देते हैं |


पहले मुझे भी ऐसा लगता कि पापा जी को स्टैंडर्ड मेंटेन कर के चलना चाहिए मगर आज समझ में आता है वही आदमी खुशी है जो अपने मन का हर काम कर लेता है | और मुझे उनके व्यक्तित्व या ये कह लें कि उनके हर काम पर फक्र महसूस होता है |



ये तो कुछ ऐसी चीजें हैं जिन्हें लिख कर शायद मेरी बैचेनी कम हो जाए | और मैं चैन से सो सकूं | और श्री मान को समझा सकूं कि होश में रह भाई.... ऐसे सुझाव मुझे मत दे.... क्योंकि मैं उनसे बढ़कर भगवान को भी नहीं मानता हूं और एकदम नहीं मानता हूं.....|      

Saturday, 16 November 2013

सचिन, बचपन और सपने

सचिन, बचपन और सपने

बचपन के वो दिन जब हम सभी दोस्तो में सिर्फ एक आदमी को कॉपी करने का धुन रहता। वह कैसे बैट पकड़ता है, वह कैसे खेलता है, उसकी स्टाइल कैसी है? बस हम इसी को कॉपी करते रहते। रोज शाम मैदान पर क्रिकेट खेलने पहुंचते और कम से कम अपने मोहल्ले या अपनी टीम का सचिन बनने का लगभग हम सभी दोस्तों कि कोशिश रहती।

ये तो हुई दिन कि बात। स्थिति तब हास्यास्पद हो जाती जब रात दो-तीन बजे पापा या मम्मी जगाते कि बाबू क्या हुआ और फिर जब मैं नॉर्मल हो जाता तो दोबारा सो जाता। फिर दिन में दीदी और पापा-मम्मी मेरे ऊपर हंसते कि रात में सोये हुए बड़बड़ा रहे थे कि भाग सचिन एक रन, सचिन चौका।

अब मैं उन लोगों को क्या बताऊं कि सपने में मैं इंडिया के लिए मैच खेल रहा था और सचिन के साथ ओपनिंग उतरा हुआ था। और सचिन से तेज मैं रन बना रहा था। सचिन मुझे सिंगल दे कर बार-बार स्ट्राइक दे रहा था और मैं चौके-छक्के मारे जा रहा था। 

मैं अब सोचता हूं कि ऐसा सिर्फ मेरे साथ नहीं होगा देश के सैकडों-हजारों बच्चों के साथ भी ऐसा होता होगा। जब मैं क्रिकेट खेलने के लिए सेंचुरी स्पोर्ट्स क्लब ज्वाइन किया और रोज डीएलडब्लू स्टेडियम जाने लगा तो वहां आने वाले खिलाड़ियों में भी सचिन बनने का धुन सवार रहता। वे भी सचिन को ही ही कॉपी करने में लगे रहते।

सचिन हमारे दिलों कि धड़कन थे। बचपन के दिनों में जिस दिन भी इंडिया का मैच रहता सुबह मेरा पेट दर्द, सर दर्द या तबियत खराब जरूर रहता और स्कूल टाइम बीतते ही सब ठीक हो जाता और मैं टीवी के पास बैठ जाता। घर वाले भी बिलकुल समझ जाते कि मेरा तबियत क्यों खराब था और डॉक्टर के पास जानें या दवाई खाने के लिए भी नहीं पूछते।

मेरे लिए क्रिकेट का मतलब ही सचिन था। मेरे पापा कहते भी दे कि अभी इतना माहोल बनइले हुआ तुरन्ते 'नटवा' (ये मेरे पापा सचिन को बोलते थे) आउट हो जाई और तू चादर ओढ़ के सूत जइबा। 

सचिन के लिए दीवानगी का आलम ये था कि एक बार मेरे घर पर तीन दिन से लाईट नहीं थी। इंडिया का श्रीलंका से मैच था। पांच मैचों में दोनों टीमें दो-दो मैच जीतकर सीरीज में बराबरी पर थीं और आखिरी वन डे एकदम फाइनल की तरह था। मैं परेशान था कि ट्रांसफार्मर कब लगेगा। लोगों से पूछने पर पता चला कि गोदाम में ट्रांसफार्मर नहीं है, लाइट आने में एक दिन और लग जाएगा।

तब तक मेरे जीजा जी घर पर आ गए। वह किसी काम से अपने गांव जा रहे थे। उस समय मेरी और उनकी बातचीत ज्यादातर क्रिकेट पर ही हुआ करती थी। आते ही पूछे यार कल का मैच तो मजेदार है। हम तुरंत बोले अरे क्या मजेदार जीजा जी यहां पर तो लाइट ही नही है और कल भी नही रहेगा। जीजा जी कहें कि चलो मेरे साथ गांव, वहां पर हम कैसे भी व्यवस्था करा के तुम्हें मैच दिखा देंगे। हम तुरंत तैयारी कर लिए। मां-पापा भी कुछ नहीं बोले और हम चले गए, उनके गांव मिर्जापुर। वहां पहुंचने पर पता चला कि लाइट नहीं है... फिर जीजा जी ने ट्रैक्टर की बैटरी निकलवाई और उससे टीवी कनेक्ट कर के हम लोग मैच देखे।

मतलब सचिन को अगर लोग भगवान कहते हैं तो एक पक्ष में यह सही भी है। क्योंकि किताबों में हम लोगों ने जितना भी मीरा का कृष्ण के प्रति प्यार और उन्हें पाने की ललक को पढ़ा है, उतना ही ललक युवा खिलाड़ियों या खेल प्रेमियों में सचिन के प्रति रहता है। हालांकि, मैं पिछले कई सालों से उतना क्रिकेट नहीं देख पाता या यूं कह ले कि अब उतना मैच के प्रति इंट्रेस्ट नही रह गया। फिर भी सचिन के प्रति कभी ये इंट्रेस्ट काम नहीं हुआ। सचिन अपना आखिरी टेस्ट मैच खेल रहे हैं और लग रहा है कि यार कोई बिछड़ सा रहा है।

हर आदमी को उम्र के परिवर्तन से एक दिन गुजरना पड़ता है और सचिन भी उसी से गुजर रहें हैं। सचिन हमेशा हमारे दिलों में रहेंगे। वह सच में क्रिकेट के भगवान हैं। चलिए अब इंतजार रहेगा कि कभी इस भगवान से सीधे-सीधे मुलाकात हो जाए।  

Friday, 18 October 2013

अस्सी चौराहा, पापा, चाय और मम्मी की सौत

अस्सी एक ऐसा मोहल्ला है जहां मैं अपने जन्म से हूं | जहां पैदा हुआ, जहां पूरा बचपन बीता उससे एक अलग जुड़ाव हो गया | पिछले तीन महीनें से अपने मोहल्ले से दूर हूं तो वो भी उतना ही याद आता है जीतना घर और बाकी चीजें | याद आना भी लाजमी है क्योंकि क्रिकेट खेलने से लेकर पतंग उड़ाने और गंगा जी में तैरने और दोस्तों के साथ मस्ती का पूरा समय ही वहीँ बीता है|

मेरे घर से कुछ दूरी पर ही चौराहा है जी हां वही 'अस्सी चौराहा' या यूं कह ले 'काशीनाथ सिंह' जी का चौराहा | बचपन से ही उस चौराहे से मेरा अलग जुड़ाव था क्योंकि वहां जाने पर बाबू आया है विक्की आया है कहकर कोई मुझे फल देता तो कोई मुझे ऑमलेट खिलाता तो कोई टॉफी-बिस्कुट | साथ ही मेरे कई काम भी निकल जाते थें जैसे मेरे स्कूल के प्रिंसिपल और सर लोग वहीँ होते तो पापा कुछ कह देते तो फिर स्कूल में मेरा थोड़ा मौहाल बन जाता था|

मेरे पापा ऑफिस के अलावा ज्यादातर समय चौराहे पर ही रहते हैं | पहले वह घर पर सिर्फ खाने और सोने के लिए ही आते थें | मम्मी कभी-कभी गुस्से में अस्सी चौराहे को अपना 'सौत' भी बोलती थीं क्योंकि घर में क्या हो रहा क्या नहीं पापा इन सब चीजों से बेखबर अस्सी पर ही रहते थें | पापा से मिलने आने वाले भी उन्हें अस्सी पर ही खोजते थें अगर वो नहीं मिले तो सिर्फ ये तसल्ली लेने घर आते थें कि 'गुरु' गांव तो नहीं गए हैं | उस समय मुझे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि पापा चौराहे पर क्यों रहते हैं, मुझे तो बस पापा के आने का इंतजार होता था कि आज वो बादाम, रसगुल्ला या पारले जी बिस्कुट में से क्या लाएंगे |

दो साल पहले बीएचयू मॉसकॉम में एडमिशन हुआ उसके बाद कुछ किताबे, नॉवेल और लेखकों के लेख पढ़ने लगा | उसमें कई लोगों ने 'अस्सी चौराहे' का जिक्र किया | काफी लोगों को पढ़ने के बाद (जिसमें एक 'काशी का अस्सी' भी है जो पापा जी ने 'डॉक्टर गया सिंह चाचा जी' के यहां से ला कर मुझे दी प्रमुख है) अस्सी को देखना का मेरा भी नजरिया बदला |

एक ऐसी जगह जहां लोग आपस में लड़ रहे होते हैं| एक दूकान पर कोई अमेरिका कि बात कर रहा होता तो कोई किसी गांव का | दूसरी दूकान पर सरकार बनाने से गिराने तक और एक दूसरे की पार्टी को सुद्ध बनारसी अंदाज में गरियाने का कार्यक्रम चल रहा होता है | वहीँ किसी दूकान पर अर्थव्यवस्था, चिकित्सा, शिक्षा और विश्वविद्यालय जैसे गंभीर मुद्दों पर बहस चल रही होती है| वो मुझे अच्छी लगने लगी | हालांकि अस्सी चौराहे पर मैं जल्दी नहीं जाता क्योंकि वहां पापा अपने दोस्तों के साथ बैठे रहते हैं, मगर उधर से गुजरते हुए धीरे जरूर हो जाता हैं और सारी चीजों का आनंद लेते हुए चौराहे को पार करता हूं| अस्सी घाट मुड़ने वाले रास्ते मतलब शास्त्री जी की पान की दूकान से पप्पू चाचा के चाय की दूकान तक एक अलग ही दृश्य नजर आता है जहां की बात हमेशा 'जरा हटके' ही रहती है |


अस्सी मतलब जहां चाय कि चुस्कियों के साथ आप को मिलता बनारसी अल्हड़पन | साथ ही शिक्षा, राजनीति, पत्रकारिता जैसी चीजों पर सटीक विश्लेषण | वहां पर आप देश के बड़े साहित्यकार, पत्रकार, प्रोफेसर, चिकित्सक, इंजीनियर जैसे लोगों के साथ छोटे मोटे काम कर जीवन जीने वाले लोगों को एक ही बेंच पर चाय का आनंद लेते देख सकते हैं |  

लिखने को तो बहुत कुछ है वहां के बारे में क्योंकि मैंने भी काफी करीब से देखा है चौराहे को | फिर लिखूंगा जिस दिन मन करेगा |

Monday, 14 October 2013

शुरुआत

 आज मैंने भी ब्लॉग लिखने की शुरुआत की। ईश्वर पर बहुत ज्यादा विश्वास होने की वजह से मैं हर चीज में अच्छा-बुरा दिन देखता हूं। शायद यही कारण है कि पिछले कई दिन से सोचने के बावजूद मैंने ब्लॉग बनाने या लिखने की जहमत नहीं उठाई। चूंकि आज के तारीख में मैं पैदा हुआ था इसलिए मैं आज के दिन को अपने लिए सबसे ज्यादा शुभ मानता हूं। इसके भी कई कारण हैं जिसका निचोड़ यह है कि मुझे जब जिस चीज की हसरत होती है वो मिल जाती है।

चलिए फिर शुरुआत करते हैं आज से  ।  देखते हैं ये सफर कितना दूर जाता है।

Monday, 16 September 2013

पापा, सुबह और मैं.....

पापा, सुबह और मैं.....



मगर एहसास, आज तक ताजा ही रहता.....

वह बचपन जब नींद एक आवाज से खुलती
कुछ अलग ही वो मुझमें एहसास जगाती..
मेरे नाको को दबाते,गोद में उठाते
मेरे हाथ पैर को कसरत कराते
''उठ जाओ 'मैन' सुबह हो गई''
कहते वो मुझे जगाते.....

कुछ बड़ा हुआ तो ''लड़के'' की आवाज से नींद खुलती
देर से उठने के कारण, मेरे छूटे हुए मैच का
अफ़सोस उनके चेहरे पर होता..
'बहुत थका हुआ हूं' की मेरी जब वो लाइन सुनते
''रात भर खेत जोतत रहला''
का रोज का डॉयलाग सुनाते
मेरे हाथ-पैर दबाते, कसरत कराते वो मुझे जगाते.....

कॉलेज के समय उठिए नेता जी कहकर मुझे जगाते
मगर मेरे शब्द बदले होते, अभी तो सोये हैं पापा जी
इतना सुबह-सुबह ही आप क्यों जगाते..
वो हंसते हुए 'ऐसे ही देश चलईबा नेता जी'
कहते और अखबार थमा मुझे जगाते.....

आज मैं नौकरी करता हूं
हमेशा की तरह सुबह भी होती है,
मगर इसमें कुछ उदासी सी होती है
सामने पापा के चेहरे की जगह काम की टेंशन होती है..
तभी फोन की घंटी बजती है,कैसे हैं नेता जी कि आवाज आती है
ना उनके इस प्रश्न को करने में ना मेरे जवाब में ख़ुशी होती है..
बस रोज उनके एक लाइन से फ़ोन कटती है
आ जाइये इधर ही, नौकरी तो बनारस में भी हो सकती है.....

Saturday, 14 September 2013

हिंदी नहीं आती है.....

हिंदी नहीं आती है.....




हिंदुस्तान में रहते हैं,
हिंदू मेरा धर्म, हिंदी मेरी भाषा चिल्लाते हैं
हिंदी के विषय पर व्याख्यान देने, हिंदुस्तान के विश्वविद्यालयों में जाते हैं  
मगर हिंदी में प्रश्न पूछने पर अनुवादक ढूंढते नजर आते हैं
क्योंकि उन महोदय को हिंदी नही आती है|


हिंदी माध्यम का छात्र प्रतियोगिता में अव्वल आता है,
और सेमेस्टर परीक्षा में दक्खिन लग जाता है,
क्योंकि कॉपी चेक करने वाले को हिंदी नही आती है
यू नो, आई नो करने वाला मेधावी हो जाता है,
और महोदय, माननीय बोलने वाला वॉट अ फक हो जाता है|


किसान अपनी समस्या का कोर्ट में दलील दायर करता है,
परन्तु फैसला किसके पछ में है,उसे समझ में नही आता है,
क्योकि कोर्ट का आदेश हिंदी में नहीं होता है..

मुफलिस मरीज डॉक्टर से इलाज को जाता है,
क्या रोग है क्या दवा लेना है, समझ में नही आता,
क्योंकि उस बीमारी का नाम और दवा हिंदी में नही होता है|

देश की ७५% आबादी जिसे समझ सकती है,
वह भाषा सरोकार से गम होती दिखती है,
वे समाज में जिल्लत खाते हैं, काऊ बेल्ट के कहलाते हैं,

बाकी २५% सिरमौर हो जाते हैं,
समाज के तथाकथित विद्वान कहलाते हैं,
क्योंकि वे चीखते चिल्लाते है कि,
उन्हें हिंदी नही आती है|

हिंदी नहीं आती है.....


हिंदुस्तान में रहते हैं,
हिंदू मेरा धर्म, हिंदी मेरी भाषा चिल्लाते हैं
हिंदी के विषय पर व्याख्यान देने, हिंदुस्तान के विश्वविद्यालयों में जाते हैं  
मगर हिंदी में प्रश्न पूछने पर अनुवादक ढूंढते नजर आते हैं
क्योंकि उन महोदय को हिंदी नही आती है|


हिंदी माध्यम का छात्र प्रतियोगिता में अव्वल आता है,
और सेमेस्टर परीक्षा में दक्खिन लग जाता है,
क्योंकि कॉपी चेक करने वाले को हिंदी नही आती है
यू नो, आई नो करने वाला मेधावी हो जाता है,
और महोदय, माननीय बोलने वाला वॉट अ फक हो जाता है|


किसान अपनी समस्या का कोर्ट में दलील दायर करता है,
परन्तु फैसला किसके पछ में है,उसे समझ में नही आता है,
क्योकि कोर्ट का आदेश हिंदी में नहीं होता है..

मुफलिस मरीज डॉक्टर से इलाज को जाता है,
क्या रोग है क्या दवा लेना है, समझ में नही आता,
क्योंकि उस बीमारी का नाम और दवा हिंदी में नही होता है|

देश की ७५% आबादी जिसे समझ सकती है,
वह भाषा सरोकार से गम होती दिखती है,
वे समाज में जिल्लत खाते हैं, काऊ बेल्ट के कहलाते हैं,

बाकी २५% सिरमौर हो जाते हैं,
समाज के तथाकथित विद्वान कहलाते हैं,
क्योंकि वे चीखते चिल्लाते है कि,
उन्हें हिंदी नही आती है|

हिंदी नहीं आती है.....


हिंदुस्तान में रहते हैं,
हिंदू मेरा धर्म, हिंदी मेरी भाषा चिल्लाते हैं
हिंदी के विषय पर व्याख्यान देने, हिंदुस्तान के विश्वविद्यालयों में जाते हैं  
मगर हिंदी में प्रश्न पूछने पर अनुवादक ढूंढते नजर आते हैं
क्योंकि उन महोदय को हिंदी नही आती है|


हिंदी माध्यम का छात्र प्रतियोगिता में अव्वल आता है,
और सेमेस्टर परीक्षा में दक्खिन लग जाता है,
क्योंकि कॉपी चेक करने वाले को हिंदी नही आती है
यू नो, आई नो करने वाला मेधावी हो जाता है,
और महोदय, माननीय बोलने वाला वॉट अ फक हो जाता है|


किसान अपनी समस्या का कोर्ट में दलील दायर करता है,
परन्तु फैसला किसके पछ में है,उसे समझ में नही आता है,
क्योकि कोर्ट का आदेश हिंदी में नहीं होता है..

मुफलिस मरीज डॉक्टर से इलाज को जाता है,
क्या रोग है क्या दवा लेना है, समझ में नही आता,
क्योंकि उस बीमारी का नाम और दवा हिंदी में नही होता है|

देश की ७५% आबादी जिसे समझ सकती है,
वह भाषा सरोकार से गम होती दिखती है,
वे समाज में जिल्लत खाते हैं, काऊ बेल्ट के कहलाते हैं,

बाकी २५% सिरमौर हो जाते हैं,
समाज के तथाकथित विद्वान कहलाते हैं,
क्योंकि वे चीखते चिल्लाते है कि,
उन्हें हिंदी नही आती है|

हिंदी नहीं आती है.....


हिंदुस्तान में रहते हैं,
हिंदू मेरा धर्म, हिंदी मेरी भाषा चिल्लाते हैं
हिंदी के विषय पर व्याख्यान देने, हिंदुस्तान के विश्वविद्यालयों में जाते हैं  
मगर हिंदी में प्रश्न पूछने पर अनुवादक ढूंढते नजर आते हैं
क्योंकि उन महोदय को हिंदी नही आती है|


हिंदी माध्यम का छात्र प्रतियोगिता में अव्वल आता है,
और सेमेस्टर परीक्षा में दक्खिन लग जाता है,
क्योंकी कॉपी चेक करने वाले को हिंदी नही आती है
यू नो, आई नो करने वाला मेधावी हो जाता है,
और महोदय, माननीय बोलने वाला वॉट अ फक हो जाता है|


किसान अपनी समस्या का कोर्ट में दलील दायर करता है,
परन्तु फैसला किसके पछ में है,उसे समझ में नही आता है,
क्योकि कोर्ट का आदेश हिंदी में नहीं होता है..

मुफ्लिश मरीज डॉक्टर से ईलाज को जाता है,
क्या रोग है क्या दवा लेना है, समझ में नही आता,
क्योंकि उस बीमारी का नाम और दवा हिंदी में नही होता है|

देश की ७५% आबादी जिसे समझ सकती है,
वह भाषा सरोकार से गम होती दिखती है,
वे समाज में जिल्लत खाते हैं, काऊ बेल्ट के कहलाते हैं,

]बाकी २५% सिरमौर हो जाते हैं,
समाज के तथाकथित विद्वान कहलाते हैं,
क्योकि वे चीखते चिल्लाते है कि,
उन्हें हिंदी नही आती है|

राघवेन्द्र मिश्र

Tuesday, 16 April 2013

आदमी


आदमी ही आदमी का दुश्मन है,
कोई दलित, कोई सवर्ण तो कोई मुस्लिम है..

जिस तरह सुबह, दोपहर, शाम सब एक प्रहर है,
असहिष्णुता की बात करना, दूध में मिला जहर है..

कलयुग में सत्य अहिंसा की बात करना, भयंकर है,
ऐशे में नृप और राक्षस में क्या अंतर है..

गंगोत्री में क्या गंगा-जमुना-सरस्वती, सब हर हर गंगे है,
धर्म जाती की बात करने वाले सम्मान के लिए भूखे नंगे है..

सबसे ज्यादा विवाद में रहता यहाँ का गणतंत्र है,
नहले पर दहला मारता, यहाँ का कानून तन्त्र है..

दारू-मुर्गा, जात-पात पर ही जिन्दा यहाँ का लोकतंत्र है,
क्योंकी यह नेताओं का नही जनता का ही षडयंत्र है..

युवा,पत्रकार,वकील,अधिकारी,पुलिस सभी अपने फेरे में है,
तभी तो इतना उर्जावान देश अब भी अँधेरे में है..

यह उतनी ही झूठी नजीर है की देश में समता के लिए शिक्षा जरूरी है.
जितना यह कहना की मोहब्बत पर लिखने के लिए ये होना जरूरी है..
--"राघवेन्द्र मिश्र"

Friday, 29 March 2013

परिस्थिति...


परिस्थिति जब खराब होती है,
परछाई भी ना साथ होती है,
अपना भी पराया कैसे होता है,
की वक्त ए-मुश्किलात में ,
ये व्यक्ति जान उठता है|


सूखे में जो खेती कर जाये,
दम है उस मेहनत की भुजाओं में,
तपीष में जब बच जाये हरी पत्ती,
सदैव पूजा जाता है वह वृक्षों में,
चुनौती के आखिरी दम पर,
कौन अपना-पराया है,
ये व्यक्ति जान उठता है|


खड़ी है भीड़ जिसके साथ कंधे मिलाकर,
खाषम -खाष हो जाता है,दुश्मन भी इशारों पर,
सच्चा है जो अपने उसूलों की राहों पर,
ईश्वर भी सोचता होगा की,
जीवित है मानवता अब भी इस धरातल पर|


                                               ||राघवेन्द्र मिश्र||