आखिरकार आम चुनाव खत्म हुए। सबसे लंबे चुनाव का नतीजा भी बड़ा ऐतिहासिक रहा। पहली बार भाजपा पूर्ण बहुमत में आई। नि:संदेह इसका पूरा श्रेय नरेंद्र मोदी को जाता है। मगर, इस चुनाव की शुरुआत से नतीजे आने के एक दिन पहले तक हाशिए पर जो रहा वो मीडिया ही था। मीडिया के प्रति लोगों की अलग ही नाराजगी रही। मीडिया नेताओं का गुलाम बना चुका है, बिक गया है मीडिया, जर्नलिस्ट बिक गए हैं, ऐसी कई चीजें लेकर लोग सड़क से ल...ेकर सोशल साइट्स तक जहां भी मौका मिला चीखते-चिल्लाते रहे। हां, कुछ बड़े पत्रकार इस बीच जरूर राजनैतिक पार्टियों को ज्वाइन किए और कुछ खबरें जरूर कुछ लोगों की भावनाओं को प्रभावित की, मगर इसमें पूरी मीडिया को दोषी ठहराना कहां तक जायज है। देश की आजादी से लेकर 2009 के चुनाव तक दर्जनों ऐसे बड़े नेता हुए हैं जो पत्रकारिता करते रहे हैं।
आज के समय में मीडिया जगत एक व्यापार है और पत्रकारिता एक नौकरी, इसे नकारा नहीं जा सकता। लेकिन यह नौकरी सीधे-सीधे जनता से भी जुड़ा है। मीडिया की विश्वसनियता जरूर कम हुई है मगर इसका इंपैक्ट अब भी बरकरार है।
कुछ लोग कहते हैं टीवी, अखबार, खबरिया पोर्टल पर उलूल-जुलूल की बात ज्यादा और खबरें कम होती हैं। मीडिया पूरे चुनाव में मोदी को सबसे ज्यादा दिखा रहा था और किसी नेता को उतना समय नहीं दे रहा था। दूसरे नंबर पर मीडिया में जो जगह बचता उसमें केजरीवाल अपनी जगह बना लेते और बाकि बची जगह पर सभी राजनीतिक पार्टियां।
भाई साहब बाजार में वही सामान बेचा जाता है, जिसकी मांग होती है। जैसे-जैसे मांग बढ़ती जाती है उस सामान से पूरा बाजार भर जाता है। ठीक उसी तरह मीडिया में भी मोदी और केजरीवाल की मांग ज्यादा थी। टीआरपी और पेज व्यू की रेस में जहां मोदी बाकियों से बहुत आगे थें इसलिए उन्हें सबसे ज्यादा दिखाया जाता रहा। बची जगह पर केजरीवाल की टीआरपी और पेज व्यू अपना कब्जा जमा लेती, फिर कहां से राहुल, मायावति, मुलायम और नीतीश को जगह मिलता।
टीवी की टीआरपी और पोर्टल की पेज व्यू अगर शनी लियोनी और पूनम पांडेय पर ज्यादा आएगी तो वो दिन-भर उसे ही चलाएंगे। आप देखोगे जैसी खबर, वैसी खबरें आपको दिखाई जाएगी। तो दोषी कौन? जिस टाइप की खबरें आप पसंद करोगे, जिस विशेष व्यक्ति की आप खबरें पसंद करोगे मीडिया उसे दिखाता है और आप कहते हो मीडिया वाले गलत हैं। एडिक्शन व्यूवर और रीडर को है, प्रेजेंटर को नहीं। यहां तो बस इंजेक्शन दिया जाता है।
आज के समय में मीडिया जगत एक व्यापार है और पत्रकारिता एक नौकरी, इसे नकारा नहीं जा सकता। लेकिन यह नौकरी सीधे-सीधे जनता से भी जुड़ा है। मीडिया की विश्वसनियता जरूर कम हुई है मगर इसका इंपैक्ट अब भी बरकरार है।
कुछ लोग कहते हैं टीवी, अखबार, खबरिया पोर्टल पर उलूल-जुलूल की बात ज्यादा और खबरें कम होती हैं। मीडिया पूरे चुनाव में मोदी को सबसे ज्यादा दिखा रहा था और किसी नेता को उतना समय नहीं दे रहा था। दूसरे नंबर पर मीडिया में जो जगह बचता उसमें केजरीवाल अपनी जगह बना लेते और बाकि बची जगह पर सभी राजनीतिक पार्टियां।
भाई साहब बाजार में वही सामान बेचा जाता है, जिसकी मांग होती है। जैसे-जैसे मांग बढ़ती जाती है उस सामान से पूरा बाजार भर जाता है। ठीक उसी तरह मीडिया में भी मोदी और केजरीवाल की मांग ज्यादा थी। टीआरपी और पेज व्यू की रेस में जहां मोदी बाकियों से बहुत आगे थें इसलिए उन्हें सबसे ज्यादा दिखाया जाता रहा। बची जगह पर केजरीवाल की टीआरपी और पेज व्यू अपना कब्जा जमा लेती, फिर कहां से राहुल, मायावति, मुलायम और नीतीश को जगह मिलता।
टीवी की टीआरपी और पोर्टल की पेज व्यू अगर शनी लियोनी और पूनम पांडेय पर ज्यादा आएगी तो वो दिन-भर उसे ही चलाएंगे। आप देखोगे जैसी खबर, वैसी खबरें आपको दिखाई जाएगी। तो दोषी कौन? जिस टाइप की खबरें आप पसंद करोगे, जिस विशेष व्यक्ति की आप खबरें पसंद करोगे मीडिया उसे दिखाता है और आप कहते हो मीडिया वाले गलत हैं। एडिक्शन व्यूवर और रीडर को है, प्रेजेंटर को नहीं। यहां तो बस इंजेक्शन दिया जाता है।
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