Wednesday, 13 May 2015

किसानों को ये मौसम की मार पड़ी या कानून की

भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि यहां की अर्थव्यवस्था की कुंजी खेती-किसानी के ही हाथों में हैं। जय जवान, जय किसान के नारे के साथ विकास की ट्रेन दौड़ाने वाले देश को साल 2015 में मौसम की मार का सामना करना पड़ा। भारी बारिश और ओलावृष्टि से अर्थव्यवस्था पूरी तरह से बेपटरी नजर आई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, चालू रबी फसल में इससे उत्तर प्रदेश सहित 13 राज्यों में 106 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फसल को नुकसान होने की रिपोर्ट है। ये वे प्रदेश हैं जिनका भारत में हरित क्रांति को सफल बनाने में सबसे ज्यादा योगदान रहा है। अब वहीं के अन्नदाताओं को खुद के लिए अन्न के लाले पड़े हुए हैं। वैसे ये तो हैं सरकारी आंकड़े, सभी जानते हैं कि धरातल पर कैसी भयावह स्थिति है।
एक और सरकारी आंकड़े पर नजर डालते हैं। फसलों की बर्बादी से हताश और निराश किसानों ने गरीबी, मुआवजे और सरकारी उदासीनता के आगे हाथ फैलाने से बेहतर मौत के रास्ते को ही चुन लिया। अकेले उत्तर प्रदेश में 37 किसानों की मौत का मामला सामने आया है। इसमें कुछ किसानों की मौत फसल बर्बाद होने से लगे सदमे से हुई जबकि कुछ ने नुकसान से परेशान होकर खुदकुशी कर ली। अकेले बरेली में ऐसे 17 मामले सामने आए। हालांकि, इस साल पूरे देश में कितने किसानों ने आत्महत्या की है, इसका ब्यौरा नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने अब तक जारी नहीं किया है।
केंद्र सरकार ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह की अगुवाई में मंत्रियों के अनौपचारिक समूह का गठन किया है। यह उन किसानों को वित्तीय सहायता सीमा पर वि‍चार करेगी, जिनकी फसल को बेमौसम बरसात और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से नुकसान पहुंचा है। इसके अलावा केंद्र ने राज्य सरकारों से प्रदेश आपदा राहत कोष (एसडीआरएफ) से किसानों को तत्काल वित्तीय सहायता देने को कहा था। इसमें वित्तवर्ष के दौरान उपयोग के लिए 5,270 करोड़ रुपए उपलब्ध कराए गए हैं।
अब आते हैं नियम और कानून पर। किसानी और खेती में नुकसान का सर्वे युनाइटेड प्रोविन्स के रेवेन्यू मैनुअल 1940 के लेशन 26 के नियमों के आधार पर होता है। इसमें जमीन के क्षेत्रफल के सर्वे का प्रावधान है। हालांकि, यह कानून तात्कालीन दौर में किसानों का लगान और राजस्व माफ करने के लिए बनाया गया था। बाद में किसानों के मुआवजे के लिए नुकसान का आंकलन भी इसी के आधार पर किया जाने लगा। इसकी जिम्मेदारी क्षेत्र के लेखपाल की होती है।
युनाइटेड प्रोविन्स के रेवेन्यू मैनुअल 1940 के लेशन 26 के नियम के मुताबिक सर्वे का आधार खेत नहीं बल्कि क्षेत्रफल होता है। इसका नुकसान कई किसानों को उठाना पड़ता है। इससे उन्हें सही मुआवजा नहीं मिल पाता। सामान्य जानकार भी यह समझ सकते हैं कि किसी भी प्राकृतिक या दैवीय आपदा से अलग-अलग खेतों में अलग-अलग नुकसान होता है। इस नियम के अनुसार, मुआवजे की रकम को खेतों की गिनती के आधार पर बांट दिया जाता है।
उदाहरण के तौर पर आप देखें कि यदि किसी गांव में तीन किसान हों और उनका 100 फीसदी का नुकसान हुआ हो तो मुआवजा 33-33 फीसदी बांटा जाता है। इसमें यह नहीं देखा जाता कि‍ कि‍सकी कि‍तनी फसल बर्बाद हुई है। इतना ही नहीं जैसे ही यह दायरा गांव से निकलकर ब्लॉक, तहसील और जिले तक पहुंचता है तो इसी फॉर्मूले के तहत नुकसान का आंकड़ा घटता चला जाता है। सीधे शब्दों में समझें तो नुकसान के लिए फंड की मांग करते वक्त उत्पादन लागत नहीं बल्कि क्षेत्रफल के आधार पर किया गया सर्वे होता है।
किसानों को फसल नुकसान से उबारने के लिए सरकार द्वार कई तरह की बीमा योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना, उच्चीकृत राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना, मौसम आधारित फसल बीमा योजना और इसके साथ ही प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना। लेकिन, ताज्जुब की बात है कि किसी भी राज्य के सभी किसानों को इस दायरे में लाने का इसका प्रतिशत काफी कम है।
अब बताते हैं बीमा क्लेम के कंडिशन के बारे में। पहली स्थिति में यदि बरसात नहीं होने से फसल की बुआई नहीं हुई है तो बीमा कंपनी राज्य सरकार की संतुष्टि के बाद किसान को उसका 25 फीसदी रकम देगी। वहीं, प्राकृतिक आपदा से खड़ी फसल का 50 फीसदी से ज्यादा नुकसान होने की स्थिति में राज्य सरकार के आंकलन के बाद बैंक 25 फीसदी तक क्लेम की रकम देगी। इसके बाद यदि फसल कटने के बाद नष्ट होती है और किसान 48 घंटे के भीतर संबंधित बीमा कंपनी को नुकसान की जानकारी देती है तो कंपनी 25 फीसदी तक क्लेम का भुगतान करेगी। हालांकि, तीनों कंडीशन में कई तरह के नियम और शर्तें हैं, जो छोटे अक्षरों में लिखे होते हैं। इसके दायरे में ज्यादातर किसान डिफाल्टर ही होते हैं और उन्हें कोई फायदा नहीं होता है। अंत में फिर आप पहले सेंटेंस पर जा सकते हैं कि किसानों को ये मौसम की मार पड़ी है या कानून की।

Tuesday, 12 May 2015

और भूकंप की भी आदत पड़ रही है...

और भूकंप की भी आदत पड़ रही है...

कहते हैं कि डर का सामना करने से वह खत्म हो जाता है। लेकिन, एक वाजिब सवाल यह उठता है कि क्या मौत के डर की भी आदत पड़ती है?
बीते 25 अप्रैल को नेपाल के काठमांडू में भूकंप आया। इसमें वहां 8 हजार से ज्यादा लोगों की जानें गईं और 25 हजार से ज्यादा लोग घायल हो गए। इसका असर भारत पर भी पड़ा और सरकारी आंकड़े के मुताबिक, लगभग 100 लोगों की मौत और सैकड़ों लोग घायल हुए थे। दो दिनों तक उत्तर भारत के कई जिलों में डर का आलम बना हुआ था और तरह-तरह की अफवाहें चल रही थी। कई जगह तो चांद के उल्टा निकलने तक की अफवाह फैलाई गई। इससे लोग अपने घरों को छोड़कर पूरी रात सड़कों पर बिताए और सलामती के लिए भगवान से प्रार्थना और खुदा से दुआ-ख्वानी की गई। भूकंप का असर किसानी और खेतों पर भी पड़ा और मक्के-गेहूं की फसल को भारी नुकसान पहुंचा। इसके बाद भूकंप एक गॉसिप प्वाइंट बन गया। धीरे-धीरे यह सिर्फ मीडिया रिपोर्ट और खबरों तक ही सीमित हो गया।

12 मई को एक बार फिर भूकंप का झटका लगा। इससे नेपाल में जहां 60, वहीं भारत में लगभग 25 लोगों की मौत हो गई। लेकिन, इस बार माहौल थोड़ा बदला हुआ था। जहां 25 अप्रैल को लोगों में दहशत का आलम था, वहीं इस बार लोग इसे एंजॉय कर रहे थे। जैसे लगा भूकंप भी मेले का वह झूला हो गया है, जहां ऊपर से नीचे आते वक्त एक दो सेकेंड के लिए शरीर में सनसनाहट होती है और बाकी समय सिर्फ और सिर्फ मजा। जैसे उस सनसनाहट का भी लोग भरपूर मजा लेते हैं, वैसे ही लग रहा था कि लोग इस बार भूकंप का मजा लिए हों। हालांकि, भूकंप की तिव्रता 7.3 मापी गई, जो कहीं से भी कमजोर नहीं था।
भूकंप के बाद लोग अपने-अपने इमोशन शेयर कर रहे थे। मैं यह कर रहा था, मैंने यह देखा, मेरा साथ यह इंसिडेंट हुआ, ब्ला-ब्ला। जैसे लगा लोगों को कुछ नया एंटरटनमेंट का साधन मिल गया है। कुछ अलग, कुछ डेयरिंग वो भी फ्री में। अब इससे बेहतर उन्हें क्या मिलेगा। मैंने किसी के चेहरे पर दहशत नहीं देखा। मुझे वह कहावत 100 फीसदी सच लगा कि खतरे का बार-बार सामने करने से डर खत्म हो जाता है।
अब जरा इसी मुद्दे पर शहरी और ग्रामीण आबादी पर गौर करिए। देखिए कितना अंतर समझ में आता है। शहरी आबादी का जहां डर खत्म होता है, ग्रामीण आबादी का डर वहीं से शुरू होता है। पहले भूकंप के झटके से मौत का डर और उसके बाद उससे खेती-किसानी पर पड़ने वाले असर से आर्थिक परेशानियों का डर। एक तरफ जहां बारिश और ओलावृष्टि ने गेहूं और मक्के की फसल को भारी नुकसान पहुंचाया है, वहीं रही-सही कसर को भकूंप ने पूरा कर दिया। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 60-70 फीसदी खेती को इसका नुकसान हुआ है।

बीते 25 अप्रैल को आए भूकंप के बाद केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा राहत कोष के दिशा-निर्देशों में संशोधन भी किया। इसके बाद प्राकृतिक आपदा से होने वाली मृत्यु के मामले में मुआवजे की राशि को 1.5 लाख रुपए से बढ़ा कर चार लाख रुपए कर दी गई है। यह भी जान लीजिए कि यह राशि प्रधानमंत्री राष्‍ट्रीय राहत कोष से मिलने वाले दो लाख रुपए के अतिरिक्‍त है। लेकिन, क्या सिर्फ मृतकों को मुआवजा देकर सरकार अपनी साख बचा सकती है? उनके लिए कुछ नहीं है जिनका इसमें सबकुछ तबाह हो गया है।
वहीं, एक वाजिब उंगली देश में पैदा होती उस भिन्नता पर भी खड़ी होती है जो शहरी और ग्रामीण लोगों में अंतर पैदा कर रही है। जहां शहरी आबादी में लोग इसे दो मिनट या कुछ घंटे का गॉसिप प्वाइंट बनाए थे, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह पूरे साल उनकी आर्थिक स्थिति को मुंह चिढ़ाने का सबब बनता दिखा। अब वह इसे कैसे बैलेंस करेंगे इस बारे में सोचन के लिए सरकार के पास भी समय नहीं है, क्योंकि अब देश में गरीबी मुद्दा नहीं बनता। देश को चाहिए मेट्रो सिटी और स्मार्ट सिटी। किसी भी शर्त पर। चाहें वह किसानों की मौत पर ही क्यों न हो।

इसे आप यहां भी पढ़ सकते हैं: http://www.bhaskar.com/news/UP-people-react-just-like-they-become-habitual-of-earthquake-4992004-NOR.html

Sunday, 10 May 2015

सीएम अखिलेश ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री से की तुलना

सीएम अखिलेश ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री से की तुलना

शुक्रवार को ब्रिटेन में हो रहे प्रधानमंत्री चुनाव 2015 का नतीजा आया। इसमें कंजर्वेटिव पार्टी के प्रमुख डेविड कैमरून की दोबारा जीत हुई। परिणाम की घोषणा आते ही विश्व के कई नेताओं ने उन्हें बधाई दी। ऐसे में यूपी के सीएम अखिलेश यादव पीछे क्यों रह जाते? उन्होंने भी एक कार्यक्रम के दौरान कैमरून को जीत की बधाई दी। साथ ही उन्होंने एक शब्द और बोला- 'कैमरून की तरह मैं भी दोबारा सरकार बनाऊंगा।' क्या यह आश्चर्य करने वाला स्टेटमेंट लगता है!

अखिलेश ने यह स्टेटमेंट ऐसे ही थोड़े न दिया है। वह खुद को कैमरून से बड़ा नेता भी बता सकते हैं। बताएं भी क्यों नहीं? साल 2011 के सेंसस रि‍पोर्ट के आधार पर यूपी की आबादी 19, 95, 81, 477 है। मतलब वह इतनी आबादी के मुखिया (नेता) हैं। वहीं, 2015 के सेंसस के मुताबिक ग्रेट ब्रिटेन (युनाइटेड किंगडम) की आबादी 6,38, 43,856 है, अर्थात वह इतनी ही आबादी के मुखिया (नेता) हैं। हां, फर्क है तो पद में है, जहां अखिलेश सीएम हैं वहीं कैमरून पीएम हैं। सीएम अखिलेश जहां 5 कालिदास मार्ग में रहते हैं, वहीं कैमरून 10 डाउनिंग स्ट्रीट में रहते हैं। 

यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार को सीएम अखिलेश चला रहे हैं तो मुख्य विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी को मायावती चला रही हैं। बीजेपी और कांग्रेस अपने राष्ट्रीय नेताओं के निर्देशन में चल रही है। वहीं, ब्रिटेन में कंजर्वेटिव पार्टी के प्रमुख डेविड कैमरून हैं तो लेबर पार्टी की ओर से एड मिलीबैंड को प्रतिनिधित्व मिला है। दूसरी छोटी पार्टियों में स्कॉटिश नेशनल पार्टी में निकोल स्ट्रूगेन और लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रमुख निक क्लेग हैं। इसके साथ ही यूके इंडिपेंडेंस पार्टी निगल फराग के नेतृत्व में चल रही है। यूपी विधानसभा में 403 सीटों के लिए चुनाव होता है तो ब्रिटेन में 650 सीटों के लिए। 

ब्रिटेन में हुआ चुनाव एक और तरह से यूपी के परिदृश्य को दिखाता है। यूपी की राजनीति में भी जहां छोटी-छोटी पार्टियां अहम योगदान रखती हैं वहीं, ब्रिटेन में हुए चुनाव में भी क्षेत्रीय और छोटे दलों के उभरने से वहां की राजनीति ने नए दौर में प्रवेश लिया है। हर पार्टी और नेता के अलग-अलग मुद्दे थे और चुनावी वायदे। यूपी की तरह ही ब्रिटेन की संस्कृति भी काफी रिच है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो दोनों का इतिहास भी काफी पुराना है। 

अब बात करते हैं यूपी और ब्रिटेन के चुनावी मुद्दों की। ब्रिटेन में साल 2015 के चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा वहां की डंवाडोल होती अर्थव्यवस्था और यूरोपीय संघ से बाहर जाने या न जाने का मुद्दा था। इसके साथ हेल्थ सेवाओं को भी चुनावी मुद्दा बनाया गया था। वहीं, देश के यूरोपीय संघ का सदस्य बने रहने के बारे में जनमत संग्रह कराने के साथ-साथ स्कॉटलैंड और वेल्स को तत्काल शक्ति हस्तांतरण करने का वादा किया है। कैमरून अपने पिछले कार्यकाल में किए गए सुधारवादी कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार भी कर रहे थे, जिसे विशेषज्ञों ने भी काफी सराहा। वहीं, कुछ लोगों का मानना है कि यूरोपीय संघ को लेकर उनके द्वारा जनमत संग्रह कराने के वादे का भी जनता पर काफी प्रभाव पड़ा। 

अब आइए बात करते हैं अखिलेश यादव के कार्यकाल के बारे में। यूपी आर्थिक रूप से जहां पिछड़ा प्रदेश है, वहीं जातिगत आधार पर बंटा हुआ भी है। मूलभूत सुविधाओं का पूरी तरह से अभाव है। न उचित मात्रा में बिजली है न पानी। एक तरफ उद्योगों के अभाव में युवा दूसरे प्रदेशों में पलायन कर रहे हैं तो दूसरी तरफ किसानों पर प्रकृति की मार पड़ रही है। 

भारत में अगर यूरोपीय निवेश की ओर ध्यान दें तो उसमें ब्रिटेन का नाम सबसे ऊपर आता है। इसके साथ ही भारत ब्रिटेन में दूसरा सबसे बड़ा निवेशक है। भारतीय छात्रों का दूसरा सबसे बड़ा समूह ब्रिटेन में ही है। सीएम अखिलेश यादव भी निवेश को लेकर काफी उत्सुक रहते हैं। वह जर्मनी से ट्रेवल के लिए वन कार्ड पॉलिसी, नीदरलैंड से साइकिल ट्रैक, लंदन से लंदन आई झूला, पेरिस के वेनिस से गंडोला नाव जैसे कॉन्सेप्ट ला चुके हैं। वह फॉरेन इन्वेस्टमेंट के लिए भी बहुत इच्छुक रहते हैं। इसके साथ ही वह प्रवासी भारतीयों के लिए बिजनेस मीट के साथ-साथ उनके सम्मेलन के लिए भी लगातार प्रयास कर रहे हैं।

हालांकि, इस तुलना में एक सवाल और खड़ा होता है? डेविड कैमरून ने जहां अपनी सरकार के गृह सचिव थेरेसा मई, चांसलर जॉर्ज ओसबोर्न और लंदन के मेयर बोरिस जॉनसन को ईमानदार और अपना मजबूत उत्तराधिकारी बताया है, वहीं, सीएम अखिलेश यादव अपनी सरकार के मंत्रियों को ईमानदारी से काम करने की नसीहत देते नजर आते हैं?

क्या वह भी 2017 तक डेविड कैमरून की तरह जनता का विश्वास जीत पाएंगे यह तो समय बताएगा? हालांकि, अभी तो यह सिर्फ स्वांत: सुखाय के रूप में ही दिख रहा है।

इसे आप यहां भी पढ़ सकते हैं:- http://www.bhaskar.com/news/UP-chief-minister-akhilesh-yadav-comparison-to-british-prime-minister-david-cameron-4990887-NOR.html?version=3

Saturday, 9 May 2015

कोई तीर्थ नहीं है ऐसा, जैसा मां का प्यार

कोई तीर्थ नहीं है ऐसा, जैसा मां का प्यार

'मां' इस शब्द में ही पूरी दुनिया समाहित है। मां का ध्यान आते ही दिमाग काम करना बंद कर देता है, काम करता है तो बस दिल। मैं आज जो भी हो वह मां के प्यार, करूणा, स्नेह, ममता और वात्सल्य की ही वजह से हूं। यह 100 फीसदी सच लगता है कि ईश्वर हर समय हमारे साथ नहीं रह सकते, मां उनकी कमी को उनसे बेहतर तरीके से पूरी कर सकें, इसलिए उनका सृजन किया गया है।

जब फ्लैशबैक में जाता हूं तो बचपन के दिनों के सीन्स ऐसे सामने आ जाता है जैसे पूरी रिकॉर्डिंग दिमाग में सहेज कर रखा हुआ हूं। क्लास थ्री तक मां की गोद में ही स्कूल जाना। हर चीजों की फरमाइश पूरी होना। मेरे हर शौक को खुद का बना लेना। मेरे लिए ही सपने देखना। अपने वर्तमान को मेरे भविष्य से जोड़ना। मेरी खुशी के लिए अपने हर खुशी से कंप्रोमाइज करना। जैसे-जैसे मैं बड़ा होता, लगता मां में कुछ और शक्ति जुड़ रही है।  

मैं भूखा हूं तो मां को पता चल जाता है, मैं सोया नहीं हूं तो मां को पता चल जाता है, मैं किसी चीज के लिए परेशान हूं तो मां को पता चल जाता है। सोचता हूं कि मां के दिल में ये कैसा ड्रोन कैमरा फिक्स होता है जो वह हर चीज देख और महसूस कर लेती हैं? 

मां शब्द में एक दुनिया होती है
जिसका सबकुछ मैं होता हूं...

मां का एक सपना होता है,
जिसमें मेरे भविष्य की खुशियां होती हैं...

मां का एक शौक होता है,
जो मेरी कामयाबी में निहित होती है...

मां को भी भूख लगता है,
लेकिन मेरा पेट भरने के बाद, उन्हें महसूस होता है...

मां में भी एक उम्मीद होती है,
लेकिन, मुझे उसका बोझ नहीं डालना चाहती है...

मां की भी ख्वाहिश होती है,
जो मेरी जरूरतों की भरपाई के साथ पूरी होती है...

मां बूढ़ी होती है, मैं जवान होता हूं,
लेकिन, मां मुझमें अपना अक्स ढूंढ, सपने पूरा होते देखती है...

मां दूर भी होती है,
लेकिन, उसे मेरे हर दुख का अहसास होता है...

मैं मां से बोलना चाहता हूं,
लेकिन मां उससे पहले सब जान, उसके इलाज के बारे में बताती है...

शायद मां ही हैं, जहां विज्ञान फेल होता है,
क्योंकि शरीर के प्रमुख अंगों में मां का नाम नहीं होता है...

रोज दिन में दो से तीन बार मेरी मां से फोन पर बात होती है। फोन रिसीव होते ही मेरे प्रणाम मां बोलने के बाद मैं चुप हो जाता हूं। क्योंकि आगे के 30-40 सेकेंड तक मां हर बार की तरह वही वाक्य और शब्द बोलती हैं- खुश रहो बेटा... विश्वनाथ जी भला करें... गणेश जी सारी मनोकामना पूरी करें। दुर्गा माई सब दुख दूर करें। गंगा मइया करें जो चाहते हो वह पाओ... दिन दूना रात चौगुना सफलता पाओ...! बहुत जत्तन से पलले हईं... ध्यान रखा आपन...! इसके बाद का भी फिक्स वाक्य- क्या खाए हो? बस यहीं पर मैं हर बार की तरह झूठ बोलता हूं 'जो भी अच्छा खाने का डिश मन में आता है बोल देता हूं'... मां का अगला वाक्य भी हमेशा की तरह होता है- काहें झूठ बोलत हउवा... मैं हंसता हूं और फिर जो खाया रहता हूं वह बोल देता हूं। ताज्जुब की बात है कि अगर इस वक्त भी मैं झूठ बोलता रहता हूं तो वह तुरंत पकड़ लेती हैं। किसी शायर ने कहा है-

काशी देखा, मथुरा देखा और देखा हरिद्वार।
नासिक घूमा, गया घूमा और घूमा सारा संसार।।
चंडी पूजा, मंसा पूजा और पूजा माता का दरबार।
लेकिन, कोई तीर्थ नहीं है ऐसा, जैसा मां का प्यार।।

नोट: बहुत ज्यादा इमोशनल हूं, शायद इसलिए मां-पापाजी के नाम पर की-बोर्ड पर उंगलियां नहीं चलती। शरीर में अजीब से बेचैनी आ जाती है। उनके बारे में जब भी सोचता हूं, मन करता है सब छोड़ कर उनके पास चला जाऊं। जबतक घर पर था 21 वीं सदी की बहुत सी चीजों का पाने की ख्वाहिश थी, लेकिन अब सिर्फ और सिर्फ मां-पापाजी की खुशियों के लिए कुछ भी करने की सोचता हूं। 

मां-पाप ही सबकुछ हैं... साल का एक दिन नहीं, जिंदगी का हर सेकेंड उनके लिए है... सबको मिले मां का प्यार इस उम्मीद के साथ हैप्पी वाला मडर्स डे...

इसे dainikbhaskar.com पर भी पढ़ सकते हैं:- http://www.bhaskar.com/news/UP-mothers-day-own-thought-on-my-mother-4988265-NOR.html