भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि यहां की अर्थव्यवस्था की कुंजी खेती-किसानी के ही हाथों में हैं। जय जवान, जय किसान के नारे के साथ विकास की ट्रेन दौड़ाने वाले देश को साल 2015 में मौसम की मार का सामना करना पड़ा। भारी बारिश और ओलावृष्टि से अर्थव्यवस्था पूरी तरह से बेपटरी नजर आई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, चालू रबी फसल में इससे उत्तर प्रदेश सहित 13 राज्यों में 106 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फसल को नुकसान होने की रिपोर्ट है। ये वे प्रदेश हैं जिनका भारत में हरित क्रांति को सफल बनाने में सबसे ज्यादा योगदान रहा है। अब वहीं के अन्नदाताओं को खुद के लिए अन्न के लाले पड़े हुए हैं। वैसे ये तो हैं सरकारी आंकड़े, सभी जानते हैं कि धरातल पर कैसी भयावह स्थिति है।
एक और सरकारी आंकड़े पर नजर डालते हैं। फसलों की बर्बादी से हताश और निराश किसानों ने गरीबी, मुआवजे और सरकारी उदासीनता के आगे हाथ फैलाने से बेहतर मौत के रास्ते को ही चुन लिया। अकेले उत्तर प्रदेश में 37 किसानों की मौत का मामला सामने आया है। इसमें कुछ किसानों की मौत फसल बर्बाद होने से लगे सदमे से हुई जबकि कुछ ने नुकसान से परेशान होकर खुदकुशी कर ली। अकेले बरेली में ऐसे 17 मामले सामने आए। हालांकि, इस साल पूरे देश में कितने किसानों ने आत्महत्या की है, इसका ब्यौरा नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने अब तक जारी नहीं किया है।
केंद्र सरकार ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह की अगुवाई में मंत्रियों के अनौपचारिक समूह का गठन किया है। यह उन किसानों को वित्तीय सहायता सीमा पर विचार करेगी, जिनकी फसल को बेमौसम बरसात और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से नुकसान पहुंचा है। इसके अलावा केंद्र ने राज्य सरकारों से प्रदेश आपदा राहत कोष (एसडीआरएफ) से किसानों को तत्काल वित्तीय सहायता देने को कहा था। इसमें वित्तवर्ष के दौरान उपयोग के लिए 5,270 करोड़ रुपए उपलब्ध कराए गए हैं।
अब आते हैं नियम और कानून पर। किसानी और खेती में नुकसान का सर्वे युनाइटेड प्रोविन्स के रेवेन्यू मैनुअल 1940 के लेशन 26 के नियमों के आधार पर होता है। इसमें जमीन के क्षेत्रफल के सर्वे का प्रावधान है। हालांकि, यह कानून तात्कालीन दौर में किसानों का लगान और राजस्व माफ करने के लिए बनाया गया था। बाद में किसानों के मुआवजे के लिए नुकसान का आंकलन भी इसी के आधार पर किया जाने लगा। इसकी जिम्मेदारी क्षेत्र के लेखपाल की होती है।
युनाइटेड प्रोविन्स के रेवेन्यू मैनुअल 1940 के लेशन 26 के नियम के मुताबिक सर्वे का आधार खेत नहीं बल्कि क्षेत्रफल होता है। इसका नुकसान कई किसानों को उठाना पड़ता है। इससे उन्हें सही मुआवजा नहीं मिल पाता। सामान्य जानकार भी यह समझ सकते हैं कि किसी भी प्राकृतिक या दैवीय आपदा से अलग-अलग खेतों में अलग-अलग नुकसान होता है। इस नियम के अनुसार, मुआवजे की रकम को खेतों की गिनती के आधार पर बांट दिया जाता है।
उदाहरण के तौर पर आप देखें कि यदि किसी गांव में तीन किसान हों और उनका 100 फीसदी का नुकसान हुआ हो तो मुआवजा 33-33 फीसदी बांटा जाता है। इसमें यह नहीं देखा जाता कि किसकी कितनी फसल बर्बाद हुई है। इतना ही नहीं जैसे ही यह दायरा गांव से निकलकर ब्लॉक, तहसील और जिले तक पहुंचता है तो इसी फॉर्मूले के तहत नुकसान का आंकड़ा घटता चला जाता है। सीधे शब्दों में समझें तो नुकसान के लिए फंड की मांग करते वक्त उत्पादन लागत नहीं बल्कि क्षेत्रफल के आधार पर किया गया सर्वे होता है।

किसानों को फसल नुकसान से उबारने के लिए सरकार द्वार कई तरह की बीमा योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना, उच्चीकृत राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना, मौसम आधारित फसल बीमा योजना और इसके साथ ही प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना। लेकिन, ताज्जुब की बात है कि किसी भी राज्य के सभी किसानों को इस दायरे में लाने का इसका प्रतिशत काफी कम है।
अब बताते हैं बीमा क्लेम के कंडिशन के बारे में। पहली स्थिति में यदि बरसात नहीं होने से फसल की बुआई नहीं हुई है तो बीमा कंपनी राज्य सरकार की संतुष्टि के बाद किसान को उसका 25 फीसदी रकम देगी। वहीं, प्राकृतिक आपदा से खड़ी फसल का 50 फीसदी से ज्यादा नुकसान होने की स्थिति में राज्य सरकार के आंकलन के बाद बैंक 25 फीसदी तक क्लेम की रकम देगी। इसके बाद यदि फसल कटने के बाद नष्ट होती है और किसान 48 घंटे के भीतर संबंधित बीमा कंपनी को नुकसान की जानकारी देती है तो कंपनी 25 फीसदी तक क्लेम का भुगतान करेगी। हालांकि, तीनों कंडीशन में कई तरह के नियम और शर्तें हैं, जो छोटे अक्षरों में लिखे होते हैं। इसके दायरे में ज्यादातर किसान डिफाल्टर ही होते हैं और उन्हें कोई फायदा नहीं होता है। अंत में फिर आप पहले सेंटेंस पर जा सकते हैं कि किसानों को ये मौसम की मार पड़ी है या कानून की।