Tuesday, 12 May 2015

और भूकंप की भी आदत पड़ रही है...

और भूकंप की भी आदत पड़ रही है...

कहते हैं कि डर का सामना करने से वह खत्म हो जाता है। लेकिन, एक वाजिब सवाल यह उठता है कि क्या मौत के डर की भी आदत पड़ती है?
बीते 25 अप्रैल को नेपाल के काठमांडू में भूकंप आया। इसमें वहां 8 हजार से ज्यादा लोगों की जानें गईं और 25 हजार से ज्यादा लोग घायल हो गए। इसका असर भारत पर भी पड़ा और सरकारी आंकड़े के मुताबिक, लगभग 100 लोगों की मौत और सैकड़ों लोग घायल हुए थे। दो दिनों तक उत्तर भारत के कई जिलों में डर का आलम बना हुआ था और तरह-तरह की अफवाहें चल रही थी। कई जगह तो चांद के उल्टा निकलने तक की अफवाह फैलाई गई। इससे लोग अपने घरों को छोड़कर पूरी रात सड़कों पर बिताए और सलामती के लिए भगवान से प्रार्थना और खुदा से दुआ-ख्वानी की गई। भूकंप का असर किसानी और खेतों पर भी पड़ा और मक्के-गेहूं की फसल को भारी नुकसान पहुंचा। इसके बाद भूकंप एक गॉसिप प्वाइंट बन गया। धीरे-धीरे यह सिर्फ मीडिया रिपोर्ट और खबरों तक ही सीमित हो गया।

12 मई को एक बार फिर भूकंप का झटका लगा। इससे नेपाल में जहां 60, वहीं भारत में लगभग 25 लोगों की मौत हो गई। लेकिन, इस बार माहौल थोड़ा बदला हुआ था। जहां 25 अप्रैल को लोगों में दहशत का आलम था, वहीं इस बार लोग इसे एंजॉय कर रहे थे। जैसे लगा भूकंप भी मेले का वह झूला हो गया है, जहां ऊपर से नीचे आते वक्त एक दो सेकेंड के लिए शरीर में सनसनाहट होती है और बाकी समय सिर्फ और सिर्फ मजा। जैसे उस सनसनाहट का भी लोग भरपूर मजा लेते हैं, वैसे ही लग रहा था कि लोग इस बार भूकंप का मजा लिए हों। हालांकि, भूकंप की तिव्रता 7.3 मापी गई, जो कहीं से भी कमजोर नहीं था।
भूकंप के बाद लोग अपने-अपने इमोशन शेयर कर रहे थे। मैं यह कर रहा था, मैंने यह देखा, मेरा साथ यह इंसिडेंट हुआ, ब्ला-ब्ला। जैसे लगा लोगों को कुछ नया एंटरटनमेंट का साधन मिल गया है। कुछ अलग, कुछ डेयरिंग वो भी फ्री में। अब इससे बेहतर उन्हें क्या मिलेगा। मैंने किसी के चेहरे पर दहशत नहीं देखा। मुझे वह कहावत 100 फीसदी सच लगा कि खतरे का बार-बार सामने करने से डर खत्म हो जाता है।
अब जरा इसी मुद्दे पर शहरी और ग्रामीण आबादी पर गौर करिए। देखिए कितना अंतर समझ में आता है। शहरी आबादी का जहां डर खत्म होता है, ग्रामीण आबादी का डर वहीं से शुरू होता है। पहले भूकंप के झटके से मौत का डर और उसके बाद उससे खेती-किसानी पर पड़ने वाले असर से आर्थिक परेशानियों का डर। एक तरफ जहां बारिश और ओलावृष्टि ने गेहूं और मक्के की फसल को भारी नुकसान पहुंचाया है, वहीं रही-सही कसर को भकूंप ने पूरा कर दिया। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 60-70 फीसदी खेती को इसका नुकसान हुआ है।

बीते 25 अप्रैल को आए भूकंप के बाद केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा राहत कोष के दिशा-निर्देशों में संशोधन भी किया। इसके बाद प्राकृतिक आपदा से होने वाली मृत्यु के मामले में मुआवजे की राशि को 1.5 लाख रुपए से बढ़ा कर चार लाख रुपए कर दी गई है। यह भी जान लीजिए कि यह राशि प्रधानमंत्री राष्‍ट्रीय राहत कोष से मिलने वाले दो लाख रुपए के अतिरिक्‍त है। लेकिन, क्या सिर्फ मृतकों को मुआवजा देकर सरकार अपनी साख बचा सकती है? उनके लिए कुछ नहीं है जिनका इसमें सबकुछ तबाह हो गया है।
वहीं, एक वाजिब उंगली देश में पैदा होती उस भिन्नता पर भी खड़ी होती है जो शहरी और ग्रामीण लोगों में अंतर पैदा कर रही है। जहां शहरी आबादी में लोग इसे दो मिनट या कुछ घंटे का गॉसिप प्वाइंट बनाए थे, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह पूरे साल उनकी आर्थिक स्थिति को मुंह चिढ़ाने का सबब बनता दिखा। अब वह इसे कैसे बैलेंस करेंगे इस बारे में सोचन के लिए सरकार के पास भी समय नहीं है, क्योंकि अब देश में गरीबी मुद्दा नहीं बनता। देश को चाहिए मेट्रो सिटी और स्मार्ट सिटी। किसी भी शर्त पर। चाहें वह किसानों की मौत पर ही क्यों न हो।

इसे आप यहां भी पढ़ सकते हैं: http://www.bhaskar.com/news/UP-people-react-just-like-they-become-habitual-of-earthquake-4992004-NOR.html

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