Monday, 31 August 2015

आरक्षण और राजनीति, मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना

गुजरात में पटेल-पाटीदार कम्युनिटी के लिए आरक्षण की मांग कर रहे हार्दिक पटेल अब पूरे देश में आंदोलन करेंगे। उन्होंने ऐलान किया है कि दिल्ली और लखनऊ में भी वह अपनी मांगों के लिए सड़क पर उतरेंगे। इसके बाद से ही आरक्षण के पक्ष और विपक्ष दोनों में एक बार फिर से चर्चा शुरू हो गई है। कुछ लोगों का मानना है कि यह आंदोलन पटेल-पाटीदार जाति को तो आरक्षण नहीं दिला पाएगा, लेकिन आरक्षण को पूरी तरह से खत्म करने की मांग कर रहे लोगों को जरूर मजबूत करेगा।

वायु पुराण में एक श्लोक लिखा है, मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे कुंडे नवं पयः। जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे ।। 

इसका अर्थ है- जितने मनुष्य हैं, उतने विचार हैं। एक ही गांव के अंदर अलग-अलग कुएं के पानी का स्वाद अलग-अलग होता है। एक ही संस्कार के लिए अलग-अलग जातियों में अलग-अलग रिवाज होता है। एक ही घटना का बखान हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके से करता है। इसमें आश्चर्य करने या बुरा मानने की जरूरत नहीं है। 

साल 1990 में जब मंडल कमीशन लागू हुआ था, तब उसका विरोध करने में बीजेपी और संघ सबसे आगे रहे थे। यही नहीं, जातिगत आरक्षण के मुद्दे पर बीजेपी की वाजपेयी सरकार में भी काफी बहस हुई थी। उस दौरान बीजेपी ने आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत करते हुए इसे अपने घोषणापत्र में भी शामिल किया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी सरकार में भी आरक्षण के विरोध में माहौल बनाने की कोशिश हो रही है? या आरक्षण के खिलाफ दूसरी जातियों में बढ़ रहे विरोध को भुनाने की कोशिश की जा रही है?

एक सर्वे के मुताबिक, देश के सबसे बड़े प्रदेश यूपी में 50 हजार से ज्यादा गांवों में पिछड़ों की आबादी कुल जनसंख्या की 53.33 फीसदी है। वहीं, यूपी के 75 जिलो में से 51 में ओबीसी की जनसंख्या 60 फीसदी से ज्यादा है। पंचायती राज विभाग के रैपिड सर्वे में एक ओर पिछड़े वर्ग की आबादी 53.12 फीसदी से बढ़कर 53.33 फीसदी हो गई है तो दलितों की आबादी में 0.5 फीसदी की कमी आई है। हालांकि, रैपिड सर्वे में अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी में 0.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। राजनैतिक पार्टियां इसे अपने 'पिछड़ा कार्ड' के तुरूप के इक्के की तौर पर देख रही हैं।

राजस्थान के गुर्जर, हरियाणा के जाट, महाराष्ट्र के मराठा पहले ही आरक्षण की मांग कर चुके हैं और अब गुजरात के पटेल-पाटीदार जाति। देश में इन हिस्सों में हिंसक आंदोलन कराके SC/ST/OBC आरक्षण की मांग हो चुकी है। पूरे देश में पिछड़ा बनने की होड़ क्यों लगी है? आरक्षण की मांग को लेकर हुए पाटीदार समाज के आंदोलन ने देश में फिर से बहस छेड़ दी है कि आरक्षण किसको मिले और किसको नहीं? या तो सबको आरक्षण मिले या किसी को नहीं। पटेल समुदाय के जरिए हिंसक आंदोलन कराने का मकसद देश में आरक्षण विरोधी माहौल बनाना तो नहीं? शायद कहीं कुछ फायदा और कहीं कुछ राजनीति है।

Thursday, 20 August 2015

अमीर-गरीब सभी के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ें, 'भगवानों' के खिलाफ मार्च निकाले लोग

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक बड़ा फैसला सुनाया है। इसमें कहा गया है कि यूपी के सभी जनप्रतिनिधियों, सरकारी अफसरों, एंप्लॉइज और जजों को अपने बच्चों को सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाना होगा। है न शानदार फैसला!

जनप्रतिनिधी, सरकारी अफसर, एंप्लॉइज और जज यही मिलकर देश चलाते हैं। ये ही पृथ्वी के भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश और विश्वकर्मा हैं। यही आम लोगों का मुकद्दर लिखते हैं और वह भी पैसे (तनख्वाह) लेकर। वहीं, आम आदमियों की आदत होती है अफसर और बड़े लोगों के पीछे चलने की। उनके गुणगान गाने की। लेकिन, क्या ये भगवान उनके बारे में सोचते हैं। अगर हां तो हाईकोर्ट के आदेश के मुताबिक, पढ़ाएं अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में। अगर नहीं पढ़ा सकते तो आम लोगों को अपनी आदत बदलते हुए इन भगवानों के खिलाफ कैंडिल मार्च निकालना चाहिए। वैसे ही जैसे आए दिन कहीं न कहीं निकालते हैं। उन्हें मजबूर करना चाहिए कि वे अपने बच्चों को सरकारी-प्राथमिक स्कूल में पढ़ाएं। जिससे वह सरकारी-प्राथमिक स्कूल की व्यवस्था को ठीक करने में जरूरी कदम उठाएं। उस सिस्टम के खिलाफ आवाज उठाने की जिसके द्वारा इस मामले में याचिका दायर करने वाले शिक्षक शिव कुमार पाठक को बर्खास्त कर दिया गया है। 

सरकारी स्कूलों का हाल किसी से छुपा नहीं है। वहां कक्षा (क्लास) 5 के कई बच्चों के अपने स्कूल का पूरा नाम और 100 तक की गिनती तक नहीं आती। वह बच्चे जब किसी तरह क्लास 8-9 तक पहुंचते हैं और तो उनका सामना होता है 10वीं के बोर्ड एग्जाम से। फिर वहां उनकी मुलाकात होती है नकल माफियाओं से और वह किसी तरह से 12वीं तक की पढ़ाई पूरी कर लेते हैं। इसके बाद जैसे ही पोस्ट ग्रेजुएशन या किसी कंपीटिटिव एग्जाम के लिए वह एप्लाई करते हैं तो उनका सामना होता है प्राइवेट स्कूल और सीबीएसई-आईसीएसई बोर्ड के बच्चों से। यहीं से उन्हें उनकी हैसियत समझ में आ जाती है और बढ़ती है बेरोजगारी।

इसमें बच्चों की क्या गलती है। वह तो बेचारे कच्ची मिट्टी के लोथे होते हैं। उन्हें जो जैसा पढ़ाएगा और जिस ढांचे में ढ़ालेगा वह उसी तरह ढ़लेंगे। पढ़ाई का वैज्ञानिक तरीका क्या उन्हें तो प्राथमिक तरीके से भी नहीं पढ़ाया जाता है। न तो अच्छे टीचर मिलते हैं और न ही व्यवस्था। एक-दो टीचरों से पूरा स्कूल चलता है और उनमें भी अधिकतर जुगाड़ से नौकरी पाए हुए रहते हैं। ऐसे में बच्चे क्या कर पाएंगे। सभी तो एकलव्य नहीं होते।

अब सरकारी स्कूलों के टीचर की बात करते हैं। स्कूल में पढ़ाने से ज्यादा उनकी ड्यूटी चुनावों में, सरकारी अभियानों में, मिड डे मिल का खाना बनवाने में और स्कूल की बिल्डिंग-टॉयलेट जैसी व्यवस्थाओं को देखने में ही बीत जाती है। बचे टाइम में वे क्लास लेते हैं। इसमें भी कहीं-कहीं तो एक साथ एक ही रूम में कई क्लास के बच्चों को पढ़ाया जाता है। ऐसे में वह कितना ज्ञान दे देंगे।

अब आते हैं बच्चों के अभिभावक पर। मौजूदा समय में वे ही अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाते हैं, जो गरीबी की मार झेल रहे हैं और प्राइवेट स्कूल का बोझ नहीं उठा सकते। चूंकि प्राइवेट स्कूलों की फीस के साथ-साथ अतिरिक्त खर्चे इतने होते हैं जितने में उनका पूरा परिवार एक महीना तक भोजन कर ले। इसलिए वह भोजन को ही प्राथमिकता पर रखते हैं और बच्चों को सरकारी-प्राथमिक स्कूलों में ही पढ़ाते हैं।

जनप्रतिनिधी, सरकारी अफसर, एंप्लॉइज और जज (पृथ्वी के भगवान) यही मिलकर देश चलाते हैं। ये अपने बच्चों को देश-विदेश के बड़े संस्थानों में पढ़ाते हैं। उनकी बेहतरी के लिए कुछ भी करते हैं। अब इन्हीं के बच्चे सरकारी-प्राथमिक स्कूलों में पढ़ेंगे तो वे वहां की व्यवस्थाएं सुधारने के लिए भी हर मुकम्मल व्यवस्था करेंगे। ठीक उसी तरह जैसे वह अपने बच्चों के लिए पूरा सिस्टम इधर से उधर कर देते हैं। 

हाईकोर्ट के मुताबिक, यदि सरकारी कर्मचारियों ने अपने बच्‍चों को कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ाया तो उन्‍हें फीस के बराबर की रकम हर महीने सरकारी खजाने में जमा करानी होगी। कोर्ट ने यह भी कहा था कि ऐसे लोगों का इन्क्रीमेंट और प्रमोशन कुछ वक्त के लिए रोकने के इंतजाम किए जाएं। हाईकोर्ट की सिंगल बेंच के जस्टिस सुधीर अग्रवाल ने यह आदेश दिया था। हाईकोर्ट ने यूपी के मुख्य सचिव को आदेश दिया था कि वे बाकी अफसरों से राय-मशविरा करके 6 महीने में नई व्यवस्था कराएं। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मुख्य सचिव से कहा है कि वे इस मामले में छह महीने बाद रिपोर्ट भी दें।

अब देखिए सिस्टम की कारस्तानी। पीआईएल दाखिल करने वाले सुल्तानपुर के प्राथमिक स्कूल में टीचर शिव कुमार पाठक को डिस्ट्रिक्ट एजुकेशन अफसर ने बर्खास्त कर दिया। उन पर आरोप है कि वे स्कूल से लगातार छुट्टी ले रहे थे। जबकि, शिव कुमार पाठक ने कहा कि उन पर गलत आरोप लगाया गया है। उन्होंने कहा कि जब भी कोर्ट में पैरवी का दिन आया, तो वे स्कूल से बाकायदा लिखित में छुट्टी लेकर गए हैं। प्रिंसिपल ने उन्हें छुट्टी दी है। उन्होंने कहा, "मैं सरकार के खिलाफ कई मामलों में अपोजिट पार्टी हूं, इसलिए मुझ पर कार्रवाई की जा रही है। महीनों कई टीचर नहीं आते, लेकिन उन्हें कभी बर्खास्त नहीं किया गया। मैं इसके खिलाफ अपील करूंगा।"




फोटो छत्तीसगढ़ के एक स्कूल की है, जहां टीचर शराब के नशे में 'अ' से आम और 'द' से दारू पियो सिखा रहा था।

Sunday, 16 August 2015

PM का UAE दौरा और वहां रह रहे 26 लाख भारतीय

नरेंद्र मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं, लगातार दूसरे देशों का दौरा कर रहे हैं। इस दौरान वह व्यापारिक समझौते के साथ-साथ देश की सुरक्षा के लिए भी समझौते कर रहे हैं। 69वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से झंडा फहराने के बाद 16 अगस्त को वह यूएई जा रहे हैं। यूएई अबु धाबी, अजमान, दुबई, फुजेराह, रास एल-खैमाह, शारजाह और उम एल-कुवैन जैसे समृद्ध राष्ट्रों का एक संघ है और भारत से उसके अच्छे संबंध रहे हैं।

यूएई भारत के लिए अहम देश है, क्योंकि वहां भारत के लगभग 26 लाख लोग काम करते हैं, जिनमें अधिकतर मजदूर हैं। वे अमरीका और यूरोप में रहने वाले प्रवासी भारतीयों से बहुत अलग हैं। इनमें केरल के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। वे साल में एक बार अपने घर जरूर आते हैं और भारत में हर साल तकरीबन 12 अरब डॉलर रुपए भेजते हैं, जो कि एक बड़ी रकम है। व्यापारिक दृष्टिकोण से देखें तो चीन और अमरीका के बाद यूएई भारत का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार देश है।

इतना महत्वपूर्ण देश होने के बावजूद बीते 34 साल से किसी प्रधानमंत्री ने वहां का दौरा नहीं किया था। नरेंद्र मोदी से पहले साल 1981 में इंदिरा गांधी वहां गई थी और साल 2013 में मनमोहन सिंह का प्रोग्राम बनते-बनते स्थगित हो गया था। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे से नई संभावनाएं बन रही है। रवानगी से पहले उन्होंने कहा भी कि वे दोनों देशों के बीच असंतुलन को खत्म कर रिश्ते सुधारना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि यह उस देश का उनका पहला दौरा है, जिसकी वे तारीफ करते हैं। हालांकि, इसके दूसरे अर्थ भी निकाले जा सकते हैं कि अब तक अमेरिका, चीन जैसे जिन 20 से ज्यादा देशों का उन्होंने दौरा किया है, वह उनकी तारीफ नहीं करना चाहते थे।   

फोटो: मेरे मित्र नवीन गडवानी की है, जो बीते चार वर्षों से दुबई में जॉब कर रहे हैं।
चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग की भारत यात्रा और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच 52 अरब डॉलर के करार हुए हैं। वहीं, अमेरिका ने भी बीते आठ महीने में दो बार भारत के साथ करार में 45 अरब डॉलर का निवेश किया है। जापान से 35 अरब डॉलर, फ्रांस से 2.30 अरब डॉलर और कनाडा से 35 करोड़ डॉलर का निवेश होने की उम्मीद है। वहीं, यूएई कच्चे तेल और ऊर्जा क्षेत्र में भारत का एक महत्वपूर्ण साझेदार है। यूएई की अर्थव्यवस्था 800 अरब डॉलर की है और मौजूदा समय में भारत में उसका निवेश सिर्फ तीन अरब डॉलर का है। निवेश के लिए उसे बाजार चाहिए जो भारत में है।

राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से देखें तो दोनों देश के बीच यह एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें प्रत्यर्पण, आपसी कानूनी सहयोग और तस्करी जैसे मुद्दे अहम हैं। वहीं, आईएसआईएस के खतरों को देखते हुए यूएई महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसके साथ ही दोनों देश आतंकवाद निरोधी सहयोग के लिए समझौते कर सकते हैं। वहीं, आईएसआईएस की कैद में फंसे 39 भारतीयों की रिहाई के लिए भी कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं।

अब राजनीतिक मायने भी देख सकते हैं। अपने इस दौरे में वह दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिद कही जाने वाली अबु धाबी के शेख जायद मस्जिद भी जाएंगे। इस मस्जिद में करीब 40 हजार लोग एक साथ जा सकते हैं। मोदी वहां भारतीय कामगारों से मुलाकात भी करेंगे। ऐसे में यह दौरा प्रधानमंत्री की हिंदू नेता वाली छवि से ऊपर उठकर उन्हें सभी वर्गों का नेता बनने में मदद करेगा। वहीं, बिहार में होने वाले चुनाव में भी यह बीजेपी को मदद कर सकता है।

यूएई में रह रहे 26 लाख भारतीयों को भी नरेंद्र मोदी के आने का इंतजार होगा। हो भी क्यों न आखिर उनके घर से कोई वहां पहुंच रहा है। 

Sunday, 2 August 2015

ऑक्सीजन है ये दोस्ती, जिंदगी की बहुत बड़ी उपलब्धि है

फ्रैंडशिप डे, फाडर्स डे, मडर्स डे, ऐसे ही आजकल हर तारीख को कोई न कोई 'डे' होता है। मुझे ये 'डे' मनाना पसंद नहीं, लेकिन क्या करूं इनमें से कुछ के नाम ही ऐसे होते हैं कि न चाहते हुए भी इसकी खुशी में शामिल हो जाता हूं।

आज लोग फ्रेंडशिप डे मना रहे हैं। सोशल साइट्स पर यह ट्रेडिंग सब्जेक्ट है। दोस्ती को लेकर लोगों ने बड़े ही दिलचस्प ट्वीट किए हैं, जिन्हें पढ़ कर वह सुनहरे दिन याद आ गए जब लगता था कि बस दोस्तों का साथ हो तो हर कुछ मुमकिन है। 12 बजे रात से मिल रहे फ्रेंडशिप डे के मैसेज और कुछ दोस्तों द्वारा भेजी गई साथ की पुरानी फोटोज ने सबकुछ ताजा कर दिया। दोस्तों के साथ इमोशनल अटैचमेंट रहा है, जिसमें कोई स्वार्थ-चापलूसी का दूर दूर तक कोई मामला नहीं रहा। आज भी बनारस से जुड़ा हर काम फट से हो जाता है, जिसका मुझे घमंड भी रहता है।

जब कॉलेज के बाद बनारस से बाहर नौकरी करने की बात आई तो मेरे कुछ शुभचिंतकों ने कहा था कि बस 6 महीने बनारस से बाहर रहोगे तो सभी दोस्त, भैया और चाचा भूल जाएंगे। तुम्हें भी उनकी याद नहीं आएगी और नई जगह नए तरीके से जिंदगी जीने लगोगे। लेकिन, उनकी बातें 100 फीसदी गलत साबित हुईं। मैं आज भी बनारस जाता हूं तो मुझे चाचा-भइया कहने वालों से लगायत ऐसे लोग जिन्हें मैं दोस्त, भइया और चाचा कहता हूं मुझसे ऐसे मिलते हैं कि इसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।

एक छोटा सा उदाहरण है। सोमवार को मेरा वीकली ऑफ होता है, इसलिए हर सप्ताह सोमवार या रविवार की शाम तक मेरे कई दोस्त, भइया और शुभचिंतकों का कॉल-मैसेज यह पूछने के लिए आ जाता है कि मैं बनारस आ रहा हूं या नहीं। आज के समय में सब बिजी हैं, लेकिन वह टाइम निकाल कर मुझसे मिलते हैं। साथ में घंटों बैठने की कोशिश करते हैं। एक दूसरा उदाहरण भी देख लीजिए। एक बार मैं काशी विश्वनाथ ट्रेन से कैंट स्टेशन उतरा और स्टेशन से जैसे ही बाहर निकला तो आवाज आई- भैया महादेव। मैंने मुड़कर देखा तो मेरा एक दोस्त दिखा। वह ऑफिस जा रहा था। हम दोनों ने एक दूसरे का हालचाल लिया। इसी बीच उसने बोला, 'चला घर छोड़ देई। मैंने कहा कि भाई ऑफिस जा, हम ऑटो से चल जाइब। उसने तुरंत जवाब दिया कि कल सुबह तू फिर से निकल जइबा। संझा के फोन करब त तू कह देबा फला जगह फला आदमी के संगे हई। मुलाकात हो न पाई। ऑफिस में त रोज गाली सुनी ला आज तोहरे संगे में समय बिता कर सुनब त पुराना याद ताजा हो जाई। हां ओ समय पापा-मम्मी डांटत रहलन अब ऑफिस में थोड़ा सा सुने के पड़ी।'  

मेरे दोस्तों की संख्या भी इतनी है कि मैं उंगलियों पर नहीं गिन सकता और कभी गिनने की कोशिश भी नहीं की। दोस्तों का मेरी जिंदगी में बहुत सहयोग रहा है। हर सुख-दुख में साथ खड़े रहे हैं। हर तरह के दोस्त। हर तरह की शैतानी। कुछ भी नहीं बचा है। क्या अच्छा, क्या बुरा। समाज की नजर में शरीफ से शरीफ और बदमाश से बदमाश, सब मेरे अच्छे दोस्त रहे हैं। इतनी चीजें हैं कि किसी से कहने पर वह यह भी सोच सकता है कि फेंक रहा है। भौकाली बनारसी है। लेकिन, हकीकत क्या है मैं जानता हूं और मेरे दोस्त जानते हैं। कुछ चीजें तो एक ग्रुप के दोस्तों के साथ होने पर दूसरे ग्रुप के दोस्तों को बताने पर उन्हें भी आश्चर्य होता था। 

ऐसे ही एक दोस्त से गुस्सा होकर मैंने उसे ब्लॉक कर दिया, जिससे लगभग एक महीने हम दोनों की बात नहीं हो पाई। एक दिन मंदिर के बाहर वह मुझसे मिल गया। मैंने झूठ बोल दिया कि भाई फोन ही नहीं है और इस समय पैसा नहीं है कि नया खरीदूं। इसके बाद मैं देर रात घर पहुंचा तो मम्मी बताईं कि फला लड़का आया था, ये मोबाइल देकर गया है। बहुत देर तक तुम्हारा इंतजार किया, अभी-अभी गया है। ये कुछ किस्से हैं। 

मुझसे ज्यादा उम्र के भी भइया लोगों से मेरी बहुत अच्छी दोस्ती रही है। सब दिल, पद और व्यक्तित्व से बड़े आदमी। लोग उनसे परिचय बढ़ाने के लिए परेशान रहते हैं। मुझसे परिचय और मामूली बोलचाल से दोस्ती और फिर छोटा भाई तक का सफर इतना जल्दी बीत गया कि मैं खुद अंदाजा नहीं लगा सकता। वे अपने-अपने क्षेत्र में इतना काम किए हैं कि समाज भी उन्हें बड़ा आदमी मानता है। आज भी उनका केयर करना, मेरी हर चीजों में मुझे पॉजिटिव सुक्षाव देना। हम देर रात बातें करते हैं, किसी हम उम्र दोस्त या घरवालों की तरह। उनका मेरे करियर की चिंता करना, यह सब मेरी जिंदगी की एक बड़ी उपलब्धि है। 

बनारस से निकलने के बाद मैंने दोस्ती करना छोड़ दिया। भोपाल में मुझे एक दोस्त मिला। बाकी सब फार्मेलिटी वाले ही रहे। लखनऊ में मुझे एक बड़े भाई जैसे दोस्त मिले। व्यक्तित्व के अच्छे और नि:स्वार्थ संबंध रखने वाले। वह भी बनारस के उन्हीं भइया लोगों की तरह हैं जो मेरा फोन न उठाने और वॉट्सऐप का जवाब नहीं देने पर परेशान हो जाते हैं। सच बताऊं दो साल बाद अच्छी दोस्ती हुई।    

दोस्तों के साथ की ऐसी यादें हैं जिन्हें मैं कभी नहीं भूल सकता। कभी भी नहीं। इतनी यादें हैं कि सच में एक डायरी भर जाएगी। उनकी दोस्ती मेरी जिंदगी का एक हिस्सा बन गई है। व्यस्त नौकरी के बीच आज बहुत कम बातें होती हैं, फेसबुक पर लाइक, कमेंट वॉट्सऐप पर एक-दो चैट और जरूरत पड़ने पर फोन करने के अलावा ज्यादा बात नहीं होती है। लेकिन, आज भी दोस्तों का साथ वैसा ही है। उनसे बात करना ऑक्सीजन की तरह काम करता है। उनके साथ समय बिताना एक ख्वाहिश के पूरे होने जैसा लगता है।  दोस्तों ने मेरा इतना साथ दिया कि मैं उन्हें कभी धन्यवाद भी नहीं बोल सकता। धन्यवाद, आभार यह शब्द बौने हैं उनके सहयोग के आगे।