Friday, 25 December 2015

बढ़ते प्रदूषण से विश्व चिंतित, दिल्ली में ऑड-ईवन फॉर्मूला तो चीन में दूसरी बार रेड अलर्ट

पर्यावरण से की गई मनमानी छेड़ -छाड़ के गंभीर नतीजे सामने आने लगे हैं। दुनिया को अपनी जकड़ में घेरते  प्रदूषण को लेकर पूरे विश्व में हाहाकार मचा हुआ है। चीन की राजधानी बीजिंग में जहां दूसरी बार रेड अलर्ट जारी किया गया है, वहीं हाईकोर्ट की फटकार के बाद दिल्ली में अब ऑड-ईवन नंबर फार्मूला लागू कर प्रदूषण को कम करने की कोशिश की गई है। इसके मुताबिक, दिल्ली में अब ऑड-ईवन कैटेगरी की गाड़ियां अल्टरनेट डेज में चलाई जाएगी।  इसे 1 जनवरी, 2016 से लागू किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्ली-एनसीआर में 2000 सीसी से ज्यादा की नई डीजल कारों के रजिस्ट्रेशन पर 31 मार्च तक रोक लगा दी है। बताते चलें कि इससे पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी, 'दिल्ली में रहना अब गैस चैंबर में रहने जैसा हो गया है। वहीं, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने भी बढ़ते प्रदूषण को लेकर दि‍ल्ली सरकार पर गंभीरता से कार्रवाई नहीं करने का आरोप लगाया था।

पर्यावरण हमारे शरीर को सबसे अधिक प्रभावित करता है और प्रदूषित पर्यावरण धीमे जहर की तरह काम करता है। भारत में हालात काफी चिंताजनक हैं और एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के 20 सबसे ज्यादा एयर पॉल्यूशन वाले शहरों में 13 भारत के हैं, जिनमें  राजधानी दिल्ली टॉप पर है। हालात की गंभीरता बस इस उदाहरण से समझी जा सकती है कि विश्व के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देश चीन ने, अपनी जनता को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को समझाने के लिए मुंबई और इलाहाबाद जैसे भारतीय शहरों के पर्यावरण के मुद्दे को उठाया है। वांगफुजिंग सिटी में तो प्रदूषण के दुष्परिणाम के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इन भारतीय शहरों के चित्रों को प्रदर्शित करते विज्ञापन लगाए गए हैं।

हाल ही में पेरिस में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में उद्योगों, वाहनों और विलासी उपभोग की वस्तुओं के चलते खतरनाक तरीके से बढ़ रहे कार्बन के स्तर पर सभी देशों ने चिंता जताई। इस सम्मेलन का लक्ष्य जलवायु पर एक कानूनी बाध्यकारी, सार्वभौम समझौते के साथ-साथ, ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना था। समिट में  विकसित देशों की विलासितापूर्ण जीवनशैली से हो रही बिजली की खपत के चलते बढ़ रहे कार्बन उत्सर्जन का सवाल उठाते हुए यह तय किया गया कि सभी देश सस्टेनबल लाइफ स्टाइल (कम से कम विलासितापूर्ण जीवन) की कोशिश करेंगे और विकसित देश इसके लिए सबसे पहले कदम उठाएंगे। इस पहल के तहत उपभोग की चीजों की खपत और उनका उत्पादन कम किया जाएगा।

30  नवंबर से 11 दिसंबर तक चले इस सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पश्चिमी देशों को उनके रहन-सहन को लेकर सलाह दी। समिट के पहले दिन दिए गए अपने भाषण में उन्होंने साफ तौर पर कहा कि विकसित देशों की विलासितापूर्ण जीवनशैली से पर्यावरण में कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है। भारत ने इस बात पर भी जोर दिया कि वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को औद्योगिकरण युग से पहले के तापमान स्तर के 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर लाने के लक्ष्य के लिए जरूरी है कि विकसित देश ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 'व्यापक रूप से' घटाएं और विकासशील देशों में वित्तीय मदद बढ़ाएं। इस सम्मेलन में सभी राष्ट्र जहरीली होती जलवायु को लेकर काफी चिंतित और मुखर दिखे। विनाशकारी जीवन-शैली को लेकर जिस साफगोई से पेरिस सम्मेलन में बातें कही गईं, वैसी पिछली बार लीमा में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में नहीं की गई थी। 

इसी हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी पहुंचे अमेरिकी राजदूत रिचर्ड राहुल वर्मा भी गंगा का हाल देखकर व्यथित दिखे। उन्होंने कहा कि भारत में पर्यावरण को शुद्ध और स्वच्छ रखने के लिए गंगा का निर्मलीकरण बेहद जरूरी है और अगर गंगा नदी को स्वच्छ कर लिया गया, तो यहां के पर्यावरण में शुद्धता का प्रतिशत कई गुना बढ़ जाएगा। उन्होंने कहा कि पर्यावरण को शुद्ध करना और इसे शुद्ध रखना बहुत बड़ी चुनौती है और इसकी जिम्मेदारी इस धरती पर रह रहे सभी नागरिकों की है। 

चीन में लगातार आ रही जहरीली धुंध से समझा जा सकता है कि प्रदूषण किस तरह से  हमारी वायु, जल और खाद्य पदार्थों को प्रभावित करता है। विश्व में बढ़ रहा जहरीला प्रदूषण मानव निर्मित है और इसे सब एकजुट होकर ही बचा सकते हैं। भारत में भी पर्यावरण की स्थिति सुधारने की दिशा में पहल करते हुए, शहरी आबादी पर जरूरी उपायों को अमल कराने के लिए प्रयास शुरू हो गए हैं, जिसका ताजा उदाहरण दिल्ली में देखने को मिल रहा है। हमें यह पृथ्वी अपने पूर्वजों से प्रदूषण रहित मिली थी और हमें अपनी आने वाली पीढ़ी को इसे प्रदूषण रहित ही सौंपना होगा।

Tuesday, 24 November 2015

आमिर खान साहब...कुछ तो फर्ज निभाइए

बॉलीवुड स्टार आमिर खान ने असहिष्णुता पर बयान दिया। वह भी एक ऐसे समारोह में जहां देश के बड़े पत्रकारों के साथ-साथ सरकार तक उनकी बात पहुंचा सकने वाले कद्दावर केंद्रीय मंत्री बैठे थे। इस देश में संवैधानिक रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। हर किसी को अपना पक्ष रखने का अधिकार है, तो आमिर ने भी अपने अधिकार का प्रयोग किया। इसके साथ ही एक वाजिब जगह पर रखने के लिए भी बधाई। लेकिन... इस लेकिन में ही दो प्रश्न हैं... 

आमिर खान, आपको लोग मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहते हैं। लेकिन, क्या आपने सहिष्णुता/असहिष्णुता पर दिए बयान में वह परफेक्शन दिखाया है। आपने पुरस्कार वापसी का समर्थन करते हुए कहा, यह क्रिएटिव लोगों का विरोध का तरीका है। यह आपका तर्क है कि आप किसे पसंद करते हैं, किसे नहीं। लेकिन, आपने कहा, 'मेरी पत्नी ने मुझसे कहा था, क्या हमें देश छोड़ना चाहिए।' यह बात चुभ सी गई। इस स्टेटमेंट में मुझे आप असहिष्णु दिखे। इसके लिए मेरे पास दो तर्क हैं।

पहला तर्क- इस देश के लोग 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' कहा जाता है। स्वर्ग, में कुछ कमियां हो सकती हैं, लेकिन लोग उसे छोड़ते नहीं है। ऐसा होता तो लोग नर्क की कामना करते। इसी स्वर्ग रूपी जननी ने आपको इतना दिया है कि आप दूसरे देश में जा कर बसने की बात सोच सकते हैं। इसके बावजूद आप या आपकी पत्नी इस तरह की बात करेंगे तो दूसरों का क्या होगा। 

दूसरा तर्क- आमिर खान, आप एक सिलेब्रिटी हैं। आपकी फिल्में कम भी कमाई करती हैं तो 2-3 सौ करोड़ का कारोबार करती हैं। लेकिन, एक परफेक्शनिस्ट सिर्फ अपने बारे में सोचे तो बड़ा अजीब लगता है। आप उनके बारे में भी सोचिए, जिनके पास इतने पैसे नहीं है। हर कोई देश छोड़कर जाने की सोचने भी लगे, तो क्या वह आर्थिक रूप से इतना मजबूत है कि कहीं और बस सकता है?

आमिर खान, हो सकता है बीते दिनों लव जिहाद, दादरी, बीफ, पाकिस्तान चले जाओ, साहित्यकारों की हत्या, जैसी घटनाओं से आप या आपके परिवार को डर लगा हो। शादी से पहले आपकी पत्नी हिंदू थी तो शायद आप लव जिहाद के मुद्दे से डर गए हों। यह भी हो सकता है कि आप बीफ खाए हों, या खाना पसंद करते हों तो बीफ केस से डरे हों। फिर कलीबुर्गी की हत्या ने आप में डर पैदा किया हो। लेकिन, आप जैसा मजबूत सिलेब्रिटी डरेगा तो दूसरों का क्या होगा। 

आमिर खान, आप इस डर के खिलाफ आवाज बुलंद कर सकते हैं। अपने तर्कों के साथ अपना पक्ष रख सकते हैं। आपके आने से कमजोर लोगों को भी मजबूती मिलेगी। डर से भागिए से बेहतर लड़ना है। देश ने आपको बहुत कुछ दिया है, कुछ तो कर्ज उतारिए, कुछ तो फर्ज निभाइए।

#Aamir khan   #Intolerance  #IntolerantNation 

Wednesday, 28 October 2015

13 साल की रेप पीड़िता ने लड़की को दिया जन्म, दोषी कौन-कौन?

यूपी के बाराबंकी में 13 साल की एक बच्ची के साथ 17 साल का एक लड़का रेप करता है। फिर धमकी देता है कि किसी को बताया तो घरवालों को मार डालेगा। डरी बच्ची किसी से भी इसका जिक्र नहीं करती है। छह महीने तक उस मासूम को अपने शरीर में हो रहे परिवर्तन के बारे में कुछ नहीं पता चलता। एक दिन उसकी तबीयत बिगड़ने पर परिवार के लोग उसे हॉस्पिटल ले जाते हैं और वहां सोनोग्राफी टेस्ट में सामने आता है कि वह प्रेग्नेंट है। इसके बात परिवार के लोगों के जोर देने पर बच्ची उन्हें रेप के बारे में बताती है।

तय करिए कौन दोषी है...

8 जुलाई को मासूम के पिता ने इसकी शिकायत पुलिस से की। वहां से उन्हें प्रॉपर रिस्पॉंस नहीं मिला। इसके बाद गर्भपात की इजाजत लेने के लिए परिवार के लोग बाराबंकी मजिस्ट्रेट कोर्ट गए, लेकिन वहां से उन्हें जिला अस्पताल भेज दिया गया। 18 अगस्त को परिवार सीएमओ से मिला तो उन्होंने कोर्ट जाने के लिए कह दिया। इसके बाद परिवार इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचा। 7 सितंबर को कोर्ट ने कहा कि पहले मेडिकल जांच कराओ। जांच के बाद डॉक्टरों की टीम ने यह कहकर गर्भपात की इजाजत देने से मना कर दिया कि गर्भ साढ़े सात महीने का हो चुका है। बच्ची का जान जा सकती है। इसके बाद हाईकोर्ट के आदेश के बाद मासूम को क्वीन मैरी मेडिकल कॉलेज में बीते 10 सितंबर से डॉक्टरों की निगरानी में रखा गया था। 26 अक्टूबर को मासूम ने एक मासूम लड़की को जन्म दिया।

 तय करिए दोषी कौन-कौन है... 

अपनी बेबसी को लेकर हॉस्पिटल में नवजात के साथ समय काट रही मासूम की मदद के लिए तीन दिन के बाद भी कोई नहीं पहुंचा। जनता की हिमायती बनने वाली मोदी सरकार हो या मुस्कुराइए आप यूपी में है का नारा बुलंद करने वाली अखिलेश सरकार, मैं फोटो खिंचाने के लिए गरीबों के पास नहीं जाता कहने वाले राहुल गांधी हो या कोई भी नेता। न तो कोई एनजीओ पहुंची, न तो व्यक्ति।

 तय करिए कौन दोषी है...

सवाल यह है कि बच्ची के भविष्य के साथ-साथ उस बच्चे का क्या होगा, जो दुनिया में एक जुल्म की वजह से आया है। हंसने-खेलने की उम्र में रेप और फिर प्रेग्नेंसी की पहाड़ जैसी तकलीफ से लड़ने वाली मासूम क्या करेगी। वह मासूम अपनी बच्ची का शक्ल नहीं देखना चाहती। सिर्फ रो रही है। 

तय करिए दोषी कौन है ...

बच्ची के पिता कहते हैं, ''आखि‍र अब हम पड़ोसियों, रिश्तेदारों और समाज से कैसे आंख मि‍ला पाएंगे। साहब, इज्जत उतर गई है हमारी। मजदूरी कर घर चलाता हूं। बड़ी बि‍टि‍या इंटर में है। उसकी एक छोटी बहन और एक भाई है। ऐसे में अब उनका क्‍या होगा? वे कहते हैं, ''साहब, उस बच्‍ची को लेकर तो वे घर नहीं जाएंगे। बच्‍ची को हॉस्पिटल में ही छोड़ देंगे। मुनि‍या तो हमारी बच्‍ची है, अभी तक उसने ठीक से होश भी नहीं संभाला है।''


तय करिए कौन है दोषी...

मासूम के पिता कहते हैं, ''साहब, आरोपी के घर की चौखट पर कई बार मत्‍था तक टेक चुका हूं, लेकि‍न वो कहते हैं कि बेटा जेल में सड़ जाए, लेकि‍न न तो मुनि‍या को अपनाएंगे और ना ही उसके बच्चे को। जि‍तना पैसा खर्च करना होगा करेंगे, लेकि‍न अपनाएंगे नहीं।''

तय करिए कौन है दोषी...

 पिता कहते हैं, ''साहब, गुडगांव और दि‍ल्‍ली से दो लोग बच्‍ची को गोद लेने के लिए भी आए थे, लेकिन मैंने कह दिया मुझे इस बारे में कुछ नहीं मालूम। अब जज साहब ही जानें। आठ तारीख को जज साहब मि‍लने आए तो, उन्‍होंने पूछा कि बच्‍ची के पैदा होने के बाद क्‍या करोगे? मैंने साफ कह दि‍या कि मैं नहीं ले जाऊंगा। आप ही जानें क्‍या करना है।''

तय करिए कौन है दोषी...

सड़क से लेकर सोशल साइट्स तक खुद को जनता का हिमायती बताने वाले नेता, ढ़ेरों फंड जुटाने वाली सामाजिक संस्था, अरबों-खरबों रुपए रखने के लिए उद्योगपति, खुद में ही भगत सिंह से लेकर चंद्रशेखर आजाद और नेताजी सुभाष चंद्र बोस से लेकर महात्मा गांधी तक का अक्स देखने वाले लोग और खुद का मानवता का हितैषी मानने वाले किसी भी शख्स ने अब तक परिवार की किसी भी तरह की मदद नहीं की है।

मामले में 3 नवंबर को कोर्ट का फैसला आना है। वहां से अब भी कुछ उम्मीद है?

तय करिए दोषी कौन है...

मैं, कोर्ट, पीएम, सीएम, नेता, समाजसेवक या किसी भी इंसान पर कमेंट नहीं करना चाहता। बस इस बात पर खुद के लिए गुस्सा आ रहा है कि मेरा जन्म कहां हो गया है। हां, इस बात पर भी आ रहा है कि मैं सोच क्यों नहीं पा रहा मुझे क्या करना चाहिए। बस गुस्सा आ रहा है और कुछ नहीं। हां यह भी पता है कि मैं कुछ नहीं कर पाउंगा, सिर्फ लिख के रह जाउंगा।  



Friday, 11 September 2015

मीट पर बैन का प्याज कनेक्शन... थोड़ी पॉलिटिक्स, थोड़ी इकोनॉमिक्स

कुछ सरकारें मीट पर बैन लगा रही हैं। कहा जा रहा है कि जैन धर्म के पवित्र पर्यूषण (उपवास का त्योहार) पर्व को देखते हुए यह बैन है। इसके तहत मुंबई की दो नगर पालिका, गुजरात के अहमदाबाद, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब में मीट पर बैन है। सुना है कि मीट बनाने में प्याज की ज्यादा खपत होती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्याज की बिक्री कम करने और प्याज को लेकर मचे हंगामे को देखकर ऐसा निर्णय लिया जा रहा है। प्याज पर बैन में थोड़ी इकोनॉमिक्स हो सकती है तो थोड़ी पॉलिटिक्स। 

प्याज की बढ़ती कीमतों से सरकारें हमेशा से डरी रहती हैं। प्याज की बढ़ती कीमतों के कारण ही कई नेताओं की गद्दी छीनी है। कई बार इसने सियासत का रूख बदला है। ऐसे में मीट बंद होने का कारण प्याज भी हो सकता है। वैसे जिन-जिन जगहों पर प्याज पर बैन लग रहा है वहां सरकार में बीजेपी ही है। प्याज की बढ़ती कीमतों को लेकर लोग केंद्र की एनडीए सरकार पर निशाना साधने लगे हैं, ऐसे में बीजेपी शासित राज्य कहीं इसी तरह से केंद्र की मदद तो नहीं कर रहे हैं। 

दूसरी तरफ यह भी हो सकता है बीजेपी जैन धर्म के वोटर्स को अपने पक्ष में करने के लिए ऐसा कर रही हो। वहीं, कुछ लोगों का कहना है कि जैन धर्म के पर्व के दौरान मुंबई में मीट पर बैन का प्रस्ताव साल 1994 में कांग्रेस सरकार लाई थी। 10 साल बाद दो दिनों के बैन को बढ़ा कर चार दिन कर दिया गया। हालांकि, इसे कभी पूरी तरह से लागू नहीं किया गया।

इकोनॉमिक्स कहती है कि किसी चीज को ज्यादा बेचना हो तो उसके दाम में थोड़ी सी गिरावट ला दें। या फिर किसी चीज का दाम ज्यादा होने से बाजार में हाहाकार मचा हो तो उसकी खपत कम कर दें। तो ऐसा भी हो सकता है कि यहां इकोनॉमिक्स लग रही हो। कुछ दिन ही सही प्याज की बिक्री बंद हो जाए तो प्याज के दाम पर असर भी पड़ जाए। 

वैसे मुंबई के दो नगर पालिका (17 और 20 सितंबर को), गुजरात के अहमदाबाद (11 सितंबर से 18 सितंबर तक), राजस्थान (17,18 और 27 सितंबर को), छत्तीसगढ़ (10 से 18 सितंबर तक) और पंजाब (17 सितंबर को) मीट पर बैन लगाने से कितना फर्क पड़ सकता है, यह तो कोई बड़ा अर्थशास्त्री ही बता सकता है।

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Wednesday, 2 September 2015

नए जमाने का श्लोगन है, Life is short. Have an affair

दो दिन की जिंदगी है, जी लो यार। आज कर लो मजा, कल किसने देखा है। जिंदगी जीने के लिए होती है, जी भर के इंजॉय करो। अब ऐसे श्लोगन के दिन लद गए। अब के श्लोगन हैं, "Life is short. Have an affair" (जिंदगी छोटी है, बनाएं रिश्ते")। कुछ यूथ कहते हैं कि इंटलेक्चुअल दिखने के लिए एक कुर्ता, एक बैग, एक हाथ की उंगलियों में सिगरेट तो दूसरे हाथ में बियर की बॉटल होना जरूरी है। कुछ कहते हैं कि प्यार कहीं भी कहीं भी हो सकता है और सेक्स तक पहुंच कर ही मामला स्थिर होता है। कुछ कहते हैं सेल्फ कॉन्फिडेंस को बढ़ाने के लिए सिगरेट-बियर पीते हैं। कुछ कहते हैं ज्यादा गर्लफ्रैंड/ब्वॉयफ्रेंड मतलब ज्यादा एक्सपीरियंस, बाकी तो लोग जिंदगी काटते हैं। 

इंटरनेट का जमाना है और इसने जिंदगी को बहुत आसान बना दिया है। आजकल देखें तो साल 2001 में लॉन्च कनाडा की एक साइट वर्ल्ड वाइड की चर्चा में टॉप पर है। उसका नाम एश्लेमैडिसन है। यह डेटिंग साइट उन लोगों को ध्यान में रखकर बनाई गई है जो या तो शादीशुदा हैं या किसी रिलेशनशिप में कमिटेड हैं। इसके चर्चा में आने का कारण इसके मेंबर्स के डेटा की चोरी है। वैसे तो हर चोरी के बाद चोर के नाम का खुलासा होता है, लेकिन इस चोरी के बाद चोर के नाम से ज्यादा चोरी की गई लिस्ट में शामिल मेंबर्स की ज्यादा चर्चा हुई। होगी भी क्यों न, वे नए तरीके से जिंदगी को जीने जो निकले थे।

साइट के यूजर्स में सबसे ज्यादा तादात भारतीयों और अमेरिकियों की है। ऐसी खबरें है कि इस साइट पर 100 से ज्यादा यूएस के सरकारी कर्मचारी ने भी रजिस्ट्रेशन कराया है। इनमें व्हाइट हाउस, कांग्रेस और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के कर्मचारी के अकाउंट भी हैं। भारतीयों से जुड़े कई चौंकाने वाले तथ्य भी सामने आए हैं। इसके मुताबिक, इस वेबसाइट को करीब 2.75 लाख भारतीय इस्तेमाल करते थे। साल 2008 से 2015 के बीच कुल 5,236 भारतीयों ने इस साइट पर 2.4 करोड़ रुपए खर्च किए। शायद यही बदलता भारत है।

15 जुलाई 2015 को कुछ हैकर्स ने इसका सारा कस्टमर डेटा (ईमेल्स, घर के पते, यूजर्स की सेक्सुअल फैंटेसी, क्रेडिट कार्ड इन्फॉर्मेशन) चुरा ली और उसे इस वेबसाइट को बंद न किए जाने पर उसे पोस्ट करने की धमकी दी। हैकर्स ने इसका कुछ डेटा 18 अगस्त को पोस्ट कर दिया। वहीं, एश्ले मैडिसन की पैरेंट कंपनी ‘Avid Life Media’ का कहना है कि, हैकिंग के बाद भी इस पर हजारों लोगों ने पिछले सप्ताह साइन अप किया है।

मामला सिर्फ इतना है कि लोग बदल रहे हैं। शौक बदल रहा है। लोग बंधन से बाहर आ रहे हैं। हर चीजों की तरह सेक्स को भी लेकर प्रयोग होने लगे हैं। कुछ जानकारों का मानना है कि आर्थिक तौर पर स्वतंत्र होने के बाद से ही लोग ऐसी स्वतंत्रता के बारे में सोचते हैं। बस एक सवाल है कि क्या यह सांस्कृतिक मूल्यों में आ रहे बदलाव की ओर एक इशारा है या कुछ और? या फिर बदलते भारत की एक तस्वीर?


नीचे बस कुछ डेटा हैं...
शहर                              एश्लेमैडिसन यूजर्स
दिल्ली                          38562
मुंबई                            33036
चेन्नई                          16434
हैदराबाद                      12825
कोलकाता                    11807
बेंगलुरु                        11561
अहमदाबाद                  7009
चंडीगढ़                        2918
जयपुर                          5045
लखनऊ                      3885
पटना                         2524

किस शहर ने कितना खर्च किया
शहर                              एश्लेमैडिसन पर खर्च रकम (लाख रुपए में)
मुंबई                             45
बेंगलुरु                          35
नई दिल्ली                     34
पुणे                               16
चेन्नई                          13
गुड़गांव                        12
हैदराबाद                      10
कोलकाता                     6
अहमदाबाद                  5
नोएडा                          4

Monday, 31 August 2015

आरक्षण और राजनीति, मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना

गुजरात में पटेल-पाटीदार कम्युनिटी के लिए आरक्षण की मांग कर रहे हार्दिक पटेल अब पूरे देश में आंदोलन करेंगे। उन्होंने ऐलान किया है कि दिल्ली और लखनऊ में भी वह अपनी मांगों के लिए सड़क पर उतरेंगे। इसके बाद से ही आरक्षण के पक्ष और विपक्ष दोनों में एक बार फिर से चर्चा शुरू हो गई है। कुछ लोगों का मानना है कि यह आंदोलन पटेल-पाटीदार जाति को तो आरक्षण नहीं दिला पाएगा, लेकिन आरक्षण को पूरी तरह से खत्म करने की मांग कर रहे लोगों को जरूर मजबूत करेगा।

वायु पुराण में एक श्लोक लिखा है, मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना कुंडे कुंडे नवं पयः। जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे ।। 

इसका अर्थ है- जितने मनुष्य हैं, उतने विचार हैं। एक ही गांव के अंदर अलग-अलग कुएं के पानी का स्वाद अलग-अलग होता है। एक ही संस्कार के लिए अलग-अलग जातियों में अलग-अलग रिवाज होता है। एक ही घटना का बखान हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके से करता है। इसमें आश्चर्य करने या बुरा मानने की जरूरत नहीं है। 

साल 1990 में जब मंडल कमीशन लागू हुआ था, तब उसका विरोध करने में बीजेपी और संघ सबसे आगे रहे थे। यही नहीं, जातिगत आरक्षण के मुद्दे पर बीजेपी की वाजपेयी सरकार में भी काफी बहस हुई थी। उस दौरान बीजेपी ने आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत करते हुए इसे अपने घोषणापत्र में भी शामिल किया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी सरकार में भी आरक्षण के विरोध में माहौल बनाने की कोशिश हो रही है? या आरक्षण के खिलाफ दूसरी जातियों में बढ़ रहे विरोध को भुनाने की कोशिश की जा रही है?

एक सर्वे के मुताबिक, देश के सबसे बड़े प्रदेश यूपी में 50 हजार से ज्यादा गांवों में पिछड़ों की आबादी कुल जनसंख्या की 53.33 फीसदी है। वहीं, यूपी के 75 जिलो में से 51 में ओबीसी की जनसंख्या 60 फीसदी से ज्यादा है। पंचायती राज विभाग के रैपिड सर्वे में एक ओर पिछड़े वर्ग की आबादी 53.12 फीसदी से बढ़कर 53.33 फीसदी हो गई है तो दलितों की आबादी में 0.5 फीसदी की कमी आई है। हालांकि, रैपिड सर्वे में अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी में 0.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। राजनैतिक पार्टियां इसे अपने 'पिछड़ा कार्ड' के तुरूप के इक्के की तौर पर देख रही हैं।

राजस्थान के गुर्जर, हरियाणा के जाट, महाराष्ट्र के मराठा पहले ही आरक्षण की मांग कर चुके हैं और अब गुजरात के पटेल-पाटीदार जाति। देश में इन हिस्सों में हिंसक आंदोलन कराके SC/ST/OBC आरक्षण की मांग हो चुकी है। पूरे देश में पिछड़ा बनने की होड़ क्यों लगी है? आरक्षण की मांग को लेकर हुए पाटीदार समाज के आंदोलन ने देश में फिर से बहस छेड़ दी है कि आरक्षण किसको मिले और किसको नहीं? या तो सबको आरक्षण मिले या किसी को नहीं। पटेल समुदाय के जरिए हिंसक आंदोलन कराने का मकसद देश में आरक्षण विरोधी माहौल बनाना तो नहीं? शायद कहीं कुछ फायदा और कहीं कुछ राजनीति है।

Thursday, 20 August 2015

अमीर-गरीब सभी के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ें, 'भगवानों' के खिलाफ मार्च निकाले लोग

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक बड़ा फैसला सुनाया है। इसमें कहा गया है कि यूपी के सभी जनप्रतिनिधियों, सरकारी अफसरों, एंप्लॉइज और जजों को अपने बच्चों को सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाना होगा। है न शानदार फैसला!

जनप्रतिनिधी, सरकारी अफसर, एंप्लॉइज और जज यही मिलकर देश चलाते हैं। ये ही पृथ्वी के भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश और विश्वकर्मा हैं। यही आम लोगों का मुकद्दर लिखते हैं और वह भी पैसे (तनख्वाह) लेकर। वहीं, आम आदमियों की आदत होती है अफसर और बड़े लोगों के पीछे चलने की। उनके गुणगान गाने की। लेकिन, क्या ये भगवान उनके बारे में सोचते हैं। अगर हां तो हाईकोर्ट के आदेश के मुताबिक, पढ़ाएं अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में। अगर नहीं पढ़ा सकते तो आम लोगों को अपनी आदत बदलते हुए इन भगवानों के खिलाफ कैंडिल मार्च निकालना चाहिए। वैसे ही जैसे आए दिन कहीं न कहीं निकालते हैं। उन्हें मजबूर करना चाहिए कि वे अपने बच्चों को सरकारी-प्राथमिक स्कूल में पढ़ाएं। जिससे वह सरकारी-प्राथमिक स्कूल की व्यवस्था को ठीक करने में जरूरी कदम उठाएं। उस सिस्टम के खिलाफ आवाज उठाने की जिसके द्वारा इस मामले में याचिका दायर करने वाले शिक्षक शिव कुमार पाठक को बर्खास्त कर दिया गया है। 

सरकारी स्कूलों का हाल किसी से छुपा नहीं है। वहां कक्षा (क्लास) 5 के कई बच्चों के अपने स्कूल का पूरा नाम और 100 तक की गिनती तक नहीं आती। वह बच्चे जब किसी तरह क्लास 8-9 तक पहुंचते हैं और तो उनका सामना होता है 10वीं के बोर्ड एग्जाम से। फिर वहां उनकी मुलाकात होती है नकल माफियाओं से और वह किसी तरह से 12वीं तक की पढ़ाई पूरी कर लेते हैं। इसके बाद जैसे ही पोस्ट ग्रेजुएशन या किसी कंपीटिटिव एग्जाम के लिए वह एप्लाई करते हैं तो उनका सामना होता है प्राइवेट स्कूल और सीबीएसई-आईसीएसई बोर्ड के बच्चों से। यहीं से उन्हें उनकी हैसियत समझ में आ जाती है और बढ़ती है बेरोजगारी।

इसमें बच्चों की क्या गलती है। वह तो बेचारे कच्ची मिट्टी के लोथे होते हैं। उन्हें जो जैसा पढ़ाएगा और जिस ढांचे में ढ़ालेगा वह उसी तरह ढ़लेंगे। पढ़ाई का वैज्ञानिक तरीका क्या उन्हें तो प्राथमिक तरीके से भी नहीं पढ़ाया जाता है। न तो अच्छे टीचर मिलते हैं और न ही व्यवस्था। एक-दो टीचरों से पूरा स्कूल चलता है और उनमें भी अधिकतर जुगाड़ से नौकरी पाए हुए रहते हैं। ऐसे में बच्चे क्या कर पाएंगे। सभी तो एकलव्य नहीं होते।

अब सरकारी स्कूलों के टीचर की बात करते हैं। स्कूल में पढ़ाने से ज्यादा उनकी ड्यूटी चुनावों में, सरकारी अभियानों में, मिड डे मिल का खाना बनवाने में और स्कूल की बिल्डिंग-टॉयलेट जैसी व्यवस्थाओं को देखने में ही बीत जाती है। बचे टाइम में वे क्लास लेते हैं। इसमें भी कहीं-कहीं तो एक साथ एक ही रूम में कई क्लास के बच्चों को पढ़ाया जाता है। ऐसे में वह कितना ज्ञान दे देंगे।

अब आते हैं बच्चों के अभिभावक पर। मौजूदा समय में वे ही अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाते हैं, जो गरीबी की मार झेल रहे हैं और प्राइवेट स्कूल का बोझ नहीं उठा सकते। चूंकि प्राइवेट स्कूलों की फीस के साथ-साथ अतिरिक्त खर्चे इतने होते हैं जितने में उनका पूरा परिवार एक महीना तक भोजन कर ले। इसलिए वह भोजन को ही प्राथमिकता पर रखते हैं और बच्चों को सरकारी-प्राथमिक स्कूलों में ही पढ़ाते हैं।

जनप्रतिनिधी, सरकारी अफसर, एंप्लॉइज और जज (पृथ्वी के भगवान) यही मिलकर देश चलाते हैं। ये अपने बच्चों को देश-विदेश के बड़े संस्थानों में पढ़ाते हैं। उनकी बेहतरी के लिए कुछ भी करते हैं। अब इन्हीं के बच्चे सरकारी-प्राथमिक स्कूलों में पढ़ेंगे तो वे वहां की व्यवस्थाएं सुधारने के लिए भी हर मुकम्मल व्यवस्था करेंगे। ठीक उसी तरह जैसे वह अपने बच्चों के लिए पूरा सिस्टम इधर से उधर कर देते हैं। 

हाईकोर्ट के मुताबिक, यदि सरकारी कर्मचारियों ने अपने बच्‍चों को कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ाया तो उन्‍हें फीस के बराबर की रकम हर महीने सरकारी खजाने में जमा करानी होगी। कोर्ट ने यह भी कहा था कि ऐसे लोगों का इन्क्रीमेंट और प्रमोशन कुछ वक्त के लिए रोकने के इंतजाम किए जाएं। हाईकोर्ट की सिंगल बेंच के जस्टिस सुधीर अग्रवाल ने यह आदेश दिया था। हाईकोर्ट ने यूपी के मुख्य सचिव को आदेश दिया था कि वे बाकी अफसरों से राय-मशविरा करके 6 महीने में नई व्यवस्था कराएं। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मुख्य सचिव से कहा है कि वे इस मामले में छह महीने बाद रिपोर्ट भी दें।

अब देखिए सिस्टम की कारस्तानी। पीआईएल दाखिल करने वाले सुल्तानपुर के प्राथमिक स्कूल में टीचर शिव कुमार पाठक को डिस्ट्रिक्ट एजुकेशन अफसर ने बर्खास्त कर दिया। उन पर आरोप है कि वे स्कूल से लगातार छुट्टी ले रहे थे। जबकि, शिव कुमार पाठक ने कहा कि उन पर गलत आरोप लगाया गया है। उन्होंने कहा कि जब भी कोर्ट में पैरवी का दिन आया, तो वे स्कूल से बाकायदा लिखित में छुट्टी लेकर गए हैं। प्रिंसिपल ने उन्हें छुट्टी दी है। उन्होंने कहा, "मैं सरकार के खिलाफ कई मामलों में अपोजिट पार्टी हूं, इसलिए मुझ पर कार्रवाई की जा रही है। महीनों कई टीचर नहीं आते, लेकिन उन्हें कभी बर्खास्त नहीं किया गया। मैं इसके खिलाफ अपील करूंगा।"




फोटो छत्तीसगढ़ के एक स्कूल की है, जहां टीचर शराब के नशे में 'अ' से आम और 'द' से दारू पियो सिखा रहा था।

Sunday, 16 August 2015

PM का UAE दौरा और वहां रह रहे 26 लाख भारतीय

नरेंद्र मोदी जब से प्रधानमंत्री बने हैं, लगातार दूसरे देशों का दौरा कर रहे हैं। इस दौरान वह व्यापारिक समझौते के साथ-साथ देश की सुरक्षा के लिए भी समझौते कर रहे हैं। 69वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से झंडा फहराने के बाद 16 अगस्त को वह यूएई जा रहे हैं। यूएई अबु धाबी, अजमान, दुबई, फुजेराह, रास एल-खैमाह, शारजाह और उम एल-कुवैन जैसे समृद्ध राष्ट्रों का एक संघ है और भारत से उसके अच्छे संबंध रहे हैं।

यूएई भारत के लिए अहम देश है, क्योंकि वहां भारत के लगभग 26 लाख लोग काम करते हैं, जिनमें अधिकतर मजदूर हैं। वे अमरीका और यूरोप में रहने वाले प्रवासी भारतीयों से बहुत अलग हैं। इनमें केरल के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। वे साल में एक बार अपने घर जरूर आते हैं और भारत में हर साल तकरीबन 12 अरब डॉलर रुपए भेजते हैं, जो कि एक बड़ी रकम है। व्यापारिक दृष्टिकोण से देखें तो चीन और अमरीका के बाद यूएई भारत का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार देश है।

इतना महत्वपूर्ण देश होने के बावजूद बीते 34 साल से किसी प्रधानमंत्री ने वहां का दौरा नहीं किया था। नरेंद्र मोदी से पहले साल 1981 में इंदिरा गांधी वहां गई थी और साल 2013 में मनमोहन सिंह का प्रोग्राम बनते-बनते स्थगित हो गया था। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे से नई संभावनाएं बन रही है। रवानगी से पहले उन्होंने कहा भी कि वे दोनों देशों के बीच असंतुलन को खत्म कर रिश्ते सुधारना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि यह उस देश का उनका पहला दौरा है, जिसकी वे तारीफ करते हैं। हालांकि, इसके दूसरे अर्थ भी निकाले जा सकते हैं कि अब तक अमेरिका, चीन जैसे जिन 20 से ज्यादा देशों का उन्होंने दौरा किया है, वह उनकी तारीफ नहीं करना चाहते थे।   

फोटो: मेरे मित्र नवीन गडवानी की है, जो बीते चार वर्षों से दुबई में जॉब कर रहे हैं।
चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग की भारत यात्रा और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच 52 अरब डॉलर के करार हुए हैं। वहीं, अमेरिका ने भी बीते आठ महीने में दो बार भारत के साथ करार में 45 अरब डॉलर का निवेश किया है। जापान से 35 अरब डॉलर, फ्रांस से 2.30 अरब डॉलर और कनाडा से 35 करोड़ डॉलर का निवेश होने की उम्मीद है। वहीं, यूएई कच्चे तेल और ऊर्जा क्षेत्र में भारत का एक महत्वपूर्ण साझेदार है। यूएई की अर्थव्यवस्था 800 अरब डॉलर की है और मौजूदा समय में भारत में उसका निवेश सिर्फ तीन अरब डॉलर का है। निवेश के लिए उसे बाजार चाहिए जो भारत में है।

राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से देखें तो दोनों देश के बीच यह एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें प्रत्यर्पण, आपसी कानूनी सहयोग और तस्करी जैसे मुद्दे अहम हैं। वहीं, आईएसआईएस के खतरों को देखते हुए यूएई महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसके साथ ही दोनों देश आतंकवाद निरोधी सहयोग के लिए समझौते कर सकते हैं। वहीं, आईएसआईएस की कैद में फंसे 39 भारतीयों की रिहाई के लिए भी कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकते हैं।

अब राजनीतिक मायने भी देख सकते हैं। अपने इस दौरे में वह दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिद कही जाने वाली अबु धाबी के शेख जायद मस्जिद भी जाएंगे। इस मस्जिद में करीब 40 हजार लोग एक साथ जा सकते हैं। मोदी वहां भारतीय कामगारों से मुलाकात भी करेंगे। ऐसे में यह दौरा प्रधानमंत्री की हिंदू नेता वाली छवि से ऊपर उठकर उन्हें सभी वर्गों का नेता बनने में मदद करेगा। वहीं, बिहार में होने वाले चुनाव में भी यह बीजेपी को मदद कर सकता है।

यूएई में रह रहे 26 लाख भारतीयों को भी नरेंद्र मोदी के आने का इंतजार होगा। हो भी क्यों न आखिर उनके घर से कोई वहां पहुंच रहा है। 

Sunday, 2 August 2015

ऑक्सीजन है ये दोस्ती, जिंदगी की बहुत बड़ी उपलब्धि है

फ्रैंडशिप डे, फाडर्स डे, मडर्स डे, ऐसे ही आजकल हर तारीख को कोई न कोई 'डे' होता है। मुझे ये 'डे' मनाना पसंद नहीं, लेकिन क्या करूं इनमें से कुछ के नाम ही ऐसे होते हैं कि न चाहते हुए भी इसकी खुशी में शामिल हो जाता हूं।

आज लोग फ्रेंडशिप डे मना रहे हैं। सोशल साइट्स पर यह ट्रेडिंग सब्जेक्ट है। दोस्ती को लेकर लोगों ने बड़े ही दिलचस्प ट्वीट किए हैं, जिन्हें पढ़ कर वह सुनहरे दिन याद आ गए जब लगता था कि बस दोस्तों का साथ हो तो हर कुछ मुमकिन है। 12 बजे रात से मिल रहे फ्रेंडशिप डे के मैसेज और कुछ दोस्तों द्वारा भेजी गई साथ की पुरानी फोटोज ने सबकुछ ताजा कर दिया। दोस्तों के साथ इमोशनल अटैचमेंट रहा है, जिसमें कोई स्वार्थ-चापलूसी का दूर दूर तक कोई मामला नहीं रहा। आज भी बनारस से जुड़ा हर काम फट से हो जाता है, जिसका मुझे घमंड भी रहता है।

जब कॉलेज के बाद बनारस से बाहर नौकरी करने की बात आई तो मेरे कुछ शुभचिंतकों ने कहा था कि बस 6 महीने बनारस से बाहर रहोगे तो सभी दोस्त, भैया और चाचा भूल जाएंगे। तुम्हें भी उनकी याद नहीं आएगी और नई जगह नए तरीके से जिंदगी जीने लगोगे। लेकिन, उनकी बातें 100 फीसदी गलत साबित हुईं। मैं आज भी बनारस जाता हूं तो मुझे चाचा-भइया कहने वालों से लगायत ऐसे लोग जिन्हें मैं दोस्त, भइया और चाचा कहता हूं मुझसे ऐसे मिलते हैं कि इसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।

एक छोटा सा उदाहरण है। सोमवार को मेरा वीकली ऑफ होता है, इसलिए हर सप्ताह सोमवार या रविवार की शाम तक मेरे कई दोस्त, भइया और शुभचिंतकों का कॉल-मैसेज यह पूछने के लिए आ जाता है कि मैं बनारस आ रहा हूं या नहीं। आज के समय में सब बिजी हैं, लेकिन वह टाइम निकाल कर मुझसे मिलते हैं। साथ में घंटों बैठने की कोशिश करते हैं। एक दूसरा उदाहरण भी देख लीजिए। एक बार मैं काशी विश्वनाथ ट्रेन से कैंट स्टेशन उतरा और स्टेशन से जैसे ही बाहर निकला तो आवाज आई- भैया महादेव। मैंने मुड़कर देखा तो मेरा एक दोस्त दिखा। वह ऑफिस जा रहा था। हम दोनों ने एक दूसरे का हालचाल लिया। इसी बीच उसने बोला, 'चला घर छोड़ देई। मैंने कहा कि भाई ऑफिस जा, हम ऑटो से चल जाइब। उसने तुरंत जवाब दिया कि कल सुबह तू फिर से निकल जइबा। संझा के फोन करब त तू कह देबा फला जगह फला आदमी के संगे हई। मुलाकात हो न पाई। ऑफिस में त रोज गाली सुनी ला आज तोहरे संगे में समय बिता कर सुनब त पुराना याद ताजा हो जाई। हां ओ समय पापा-मम्मी डांटत रहलन अब ऑफिस में थोड़ा सा सुने के पड़ी।'  

मेरे दोस्तों की संख्या भी इतनी है कि मैं उंगलियों पर नहीं गिन सकता और कभी गिनने की कोशिश भी नहीं की। दोस्तों का मेरी जिंदगी में बहुत सहयोग रहा है। हर सुख-दुख में साथ खड़े रहे हैं। हर तरह के दोस्त। हर तरह की शैतानी। कुछ भी नहीं बचा है। क्या अच्छा, क्या बुरा। समाज की नजर में शरीफ से शरीफ और बदमाश से बदमाश, सब मेरे अच्छे दोस्त रहे हैं। इतनी चीजें हैं कि किसी से कहने पर वह यह भी सोच सकता है कि फेंक रहा है। भौकाली बनारसी है। लेकिन, हकीकत क्या है मैं जानता हूं और मेरे दोस्त जानते हैं। कुछ चीजें तो एक ग्रुप के दोस्तों के साथ होने पर दूसरे ग्रुप के दोस्तों को बताने पर उन्हें भी आश्चर्य होता था। 

ऐसे ही एक दोस्त से गुस्सा होकर मैंने उसे ब्लॉक कर दिया, जिससे लगभग एक महीने हम दोनों की बात नहीं हो पाई। एक दिन मंदिर के बाहर वह मुझसे मिल गया। मैंने झूठ बोल दिया कि भाई फोन ही नहीं है और इस समय पैसा नहीं है कि नया खरीदूं। इसके बाद मैं देर रात घर पहुंचा तो मम्मी बताईं कि फला लड़का आया था, ये मोबाइल देकर गया है। बहुत देर तक तुम्हारा इंतजार किया, अभी-अभी गया है। ये कुछ किस्से हैं। 

मुझसे ज्यादा उम्र के भी भइया लोगों से मेरी बहुत अच्छी दोस्ती रही है। सब दिल, पद और व्यक्तित्व से बड़े आदमी। लोग उनसे परिचय बढ़ाने के लिए परेशान रहते हैं। मुझसे परिचय और मामूली बोलचाल से दोस्ती और फिर छोटा भाई तक का सफर इतना जल्दी बीत गया कि मैं खुद अंदाजा नहीं लगा सकता। वे अपने-अपने क्षेत्र में इतना काम किए हैं कि समाज भी उन्हें बड़ा आदमी मानता है। आज भी उनका केयर करना, मेरी हर चीजों में मुझे पॉजिटिव सुक्षाव देना। हम देर रात बातें करते हैं, किसी हम उम्र दोस्त या घरवालों की तरह। उनका मेरे करियर की चिंता करना, यह सब मेरी जिंदगी की एक बड़ी उपलब्धि है। 

बनारस से निकलने के बाद मैंने दोस्ती करना छोड़ दिया। भोपाल में मुझे एक दोस्त मिला। बाकी सब फार्मेलिटी वाले ही रहे। लखनऊ में मुझे एक बड़े भाई जैसे दोस्त मिले। व्यक्तित्व के अच्छे और नि:स्वार्थ संबंध रखने वाले। वह भी बनारस के उन्हीं भइया लोगों की तरह हैं जो मेरा फोन न उठाने और वॉट्सऐप का जवाब नहीं देने पर परेशान हो जाते हैं। सच बताऊं दो साल बाद अच्छी दोस्ती हुई।    

दोस्तों के साथ की ऐसी यादें हैं जिन्हें मैं कभी नहीं भूल सकता। कभी भी नहीं। इतनी यादें हैं कि सच में एक डायरी भर जाएगी। उनकी दोस्ती मेरी जिंदगी का एक हिस्सा बन गई है। व्यस्त नौकरी के बीच आज बहुत कम बातें होती हैं, फेसबुक पर लाइक, कमेंट वॉट्सऐप पर एक-दो चैट और जरूरत पड़ने पर फोन करने के अलावा ज्यादा बात नहीं होती है। लेकिन, आज भी दोस्तों का साथ वैसा ही है। उनसे बात करना ऑक्सीजन की तरह काम करता है। उनके साथ समय बिताना एक ख्वाहिश के पूरे होने जैसा लगता है।  दोस्तों ने मेरा इतना साथ दिया कि मैं उन्हें कभी धन्यवाद भी नहीं बोल सकता। धन्यवाद, आभार यह शब्द बौने हैं उनके सहयोग के आगे। 

Thursday, 30 July 2015

याकूब की फांसी और 12 वकीलों द्वारा तीन बजे रात में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई

'आखिरकार...' 1993 मुंबई ब्लास्ट के दोषी याकूब मेमन को फांसी दे दी गई। इस 'आखिरकार' पर इतना जोर इसलिए देना पड़ रहा है क्योंकि उसे फांसी के फंदे तक पहुंचने से पहले लोगों ने जोर लगाकर उसका नाम लिया। कई दिनों तक यह नाम ट्विटर और फेसबुक पर ट्रेंड हुआ। बहुत लोग उसे फांसी देने के पक्ष में थे तो कुछ ने इसका विरोध भी किया। देश के इतिहास में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा पहली बार रात में खुला और याकूब की फांसी पर रोक लगाने की याचिका पर सुनवाई भोर में तकरीबन तीन बजे हुई। पक्ष और विपक्ष के लोग पूरी रात जागते रहे तो तटस्थ हमेशा की तरह अपने शिड्यूल में लगे रहे।

मुंबई में हुए 13 सिलसिलेवार बम विस्फोटों में 257 लोगों की जान गई थी, जबकि 700 से अधिक घायल हुए थे (यह सरकारी आंकड़ा है, इसकी विश्वसनीयता का अंदाजा आप खुद लगाइएगा)। क्या याकूब मेमन के जेल में काटे 21 साल उसके गुनाह के लिए काफी थे? 100 से ज्यादा स्कूली बच्चों की मौत की तुलना याकूब द्वारा अपने साथियों के खिलाफ दिए सबूत से करनी चाहिए? क्या याकूब के परिवार को देखते हुए उसके साथ मानवता दिखानी चाहिए? एक आतंकवादी को किसी धर्म से जोड़कर देखना चाहिए? या फिर यह कहते हुए उसकी फांसी पर रोक लगानी चाहिए कि‍ असीमानंद और साध्वी प्रज्ञा भी तो बम ब्लास्ट के आरोपी हैं उन्हें भी सजा मिलनी चाहिए? ये तर्क देना कि याकूब को गिरफ्तार नहीं किया गया था, उसे पाकिस्तान के खिलाफ सबूत जुटाने के लिए लाया गया था, उसे जीवनदान देने के लिए पर्याप्त था?
याकूब कोई अनपढ़ नहीं था, जो किसी झांसे में आकर वह इतनी आसानी से भारत चला आता। वह पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट था। वह अकाउंट से जुड़ी फर्म के साथ-साथ अपने आतंकवादी भाई टाइगर मेमन का गैरकानूनी फाइनेंस संभालता था। इतना ही नहीं वह जेल में रहते हुए भी इग्नू से पॉलिटिकल साइंस से पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहा था और अंग्रेजी से पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल कर चुका था। अब आप ही बताइए कि वह किसी की बातों में आ सकता था?
वकील आनंद ग्रोवर अब भी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट से बड़ी भूल हुई है। यह सही फैसला नहीं है। याकूब की फांसी की सजा पर 14 दिन की रोक लगाने के लिए देर रात चीफ जस्टिस एच एल दत्तू के यहां आनंद ग्रोवर के अलावा प्रशांत भूषण, युग मोहित, नित्या रामाकृष्णा सहित 12 टॉप वकील की टीम भी पहुंची थी। तीन बजकर 20 मिनट पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई। अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सरकार का पक्ष रखा। दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय बेंच ने याकूब की फांसी को बरकरार रखा। इसमें प्रफुल्ल चंद्र पंत और अमिताभ रॉय शामिल थे। करीब डेढ़ घंटे चली सुनवाई के बाद कोर्ट ने याकूब की फांसी को बरकरार रखते हुए वकीलों की याचिका खारिज कर दी। यह वकील किसे न्याय दिलाना चाह रहे थे यह समझ से परे है। हालांकि, उनका तर्क था कि वह भारतीय संविधान से मिली हर सुविधा याकूब को दिलाना चाहते थे, लेकिन क्या किसी गरीब-निरीह के लिए भी संविधान का ख्याल रखा जाता है?
कुछ ऑफिसर्स के स्टेटमेंट को लेकर भी लोग याकूब मेमन के पक्ष और विपक्ष में बयान दे रहे थे। आईबी के ऑफिसर रहे बी. रमण के अनुसार, याकूब को सरेंडर के लिए राजी किया गया था। वहीं, सीबीआई ने याकूब की गिरफ्तारी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से दिखाई थी। एक और थ्योरी कहती है कि इंटरपोल ने उसे भारतीय एजेंसियों को सौंपा था और फिर उसे सरकारी प्लेन से नई दिल्ली लाया गया। इसमें गलत क्या है? इतने बड़े वारदात को अंजाम देने के लिए कई थ्योरी बनाई जा सकती है। हो सकता है अलग-अलग तरह से सभी को अप्लाई किया गया हो। यह देश के लिए एक कामयाबी थी।
ज्युडिशियरी में फांसी को कैपिटल पनि‍शमेंट कहते हैं क्योंकि किसी का जीवन खत्म होता है इसलिए जज पेन की निब तोड़ देते हैं। यहां तो पेन की निब भी बचानी चाहिए थी। इस बात से भी तरस नहीं आता कि जब याकूब फांसी के फंदे की ओर जाने लगा तो उसे उसका भाई सुलेमान नजर आया। उसने आवाज देकर कहा कि भाभी राहिना और जेल में ही पैदा हुई बच्ची जुबैदा का ख्याल रखना। ब्लास्ट में मरने वाले 200 से ज्यादा लोगों के बारे में क्यों नहीं ख्याल आया था? 100 से ज्यादा बच्चों का उसे मोह नहीं लगा था?
यहां याकूब के वकील का पक्ष देखिए
-याकूब को 14 दिन का समय मिलना चाहिए।
-याकूब के पास दया याचिका पर अपील का अधिकार।
-राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज करने की कॉपी नहीं मिली।
-2014 में दया याचिका याकूब के भाई ने दाखिल की थी, इस बार उसने दाखिल की है।
सरकारी पक्ष के वकील की दलील देखिए
-बार-बार याचिका से सिस्टम कैसे काम करेगा?
-इस तरह मौत के वारंट की कभी तामील नहीं हो सकेगी।
-राष्ट्रपति के पास करने को और भी काम हैं।
-दया याचिका खारिज चुनौती न देने की बात कही।
-याकूब की सहमति से दाखिल की गई थी दया याचिका।
रात 12 बजे चीफ जस्टिस के यहां पहुंचे वकील, चीफ जस्टिस ने क्रिएट की बेंच।

दोनों दलीलों को पढ़ने के बाद ब्लास्ट में मरने वालों के बारे में सोचिए। उन 200 से ज्यादा लोगों के परिवार के बारे में सोचिए।
फिर डिसाइड करिए कि एक आतंकवादी को क्या इससे कम सजा मिलनी चाहिए?

Tuesday, 28 July 2015

'कलाम को आखिरी सलाम', ऐसी हेडिंग जिसे चाहकर भी नहीं बदल सकता था

जब भी कोई स्टूडेंट मुफलिसी के बीच एक बड़ा सपना देखता है तो उसे मोटिवेट करते हैं डॉ. अब्दुल कलाम ('था' लगाने का मन नहीं हो रहा)। एक मछुआरे का बेटा आधे पेट खाकर और बेहद छोटी जगह से निकलकर सफलतम और सबसे ज्यादा प्यार पाने वाले भारतीयों में कैसे शुमार हो गया, इसे जानकर लाखों स्टूडेंट्स को अपनी जिंदगी बदलने का मौका मिला। लोग उन्हें मिसाइल मैन, भारत रत्न, देश के 11वें राष्ट्रपति, साइंटिस्ट (वैज्ञानिक) जैसे कई उपनामों से पुकारते हैं, लेकिन उन्हें 'शिक्षक' कलाम कहलाना ही पसंद था। पृथ्वी को जीने लायक कैसे बनाया जाए? इस बारे में बात करने शिलांग पहुंचे शिक्षक कलाम स्टूडेंट्स के बीच से ही अपनी अनंत यात्रा के लिए निकल गए।
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम सच्चे कर्मयोगी के उदाहरण थे। अखबार बेचकर घर की आर्थिक मदद करने वाले कलाम ने 'अग्नि' को उड़ान देकर देश को शक्तिशाली बनाया। उनके मेहनत का ही प्रतिफल था कि भारत परमाणु शक्ति संपन्न देश बन सका। भारत को बैलेस्टिक मिसाइल और लांचिंग टेक्नोलॉजी में आत्मनिर्भर बनाने वाले कलाम के सादे कपड़े, बालों को संवारने का तरीका और बच्चों-सी चहकती हंसी तमाम मिसाइलों से ज्यादा जानलेवा थी।
पृथ्वी, त्रिशूल, अग्नि-1, धनुष, आकाश, नाग, ब्रह्मोस समेत कई मिसाइलें बनाने वाले कलाम को लोग मिसाइलमैन कहते थे। इससे इतर एक तथ्‍य यह भी है कि‍ कलाम को भी कुछ फैसले लेने में दर्द होता था। उन्होंने कहा था कि राष्ट्रपति होते हुए सबसे मुश्किल काम सजा-ए-मौत पर फैसला लेना था। इसके बाद उन्होंने इसे समाप्त करने की वकालत की थी। मृत्युदंड पर लॉ कमीशन के कंसलटेशन पेपर पर जवाब देते हुए कलाम ने कहा था कि राष्ट्रपति के तौर पर उन्हें इस तरह के मामलों में फैसला लेने में दर्द महसूस हुआ, क्योंकि ऐसे ज्यादातर मामलों में सामाजिक और आर्थिक भेदभाव था।
कहा जाता है कि उन्हें पढ़ाई के प्रति इतना लगाव था कि वह रोज सुबह चार बजे उठ कर मैथ्स पढ़ते थे। पढ़ाई खत्‍म होने के बाद ही वे अपने पिता के साथ नमाज पढ़ते थे। पढ़ाई को किसी धर्म-संप्रदाय से बड़ा मानने वाले कलाम कहते थे, जब तक ब्रह्मांड में सोलर सिस्टम है हर एक सेकेंड शुभ है। एक साधारण बच्चे से लेकर कलाम बनने का सफर आसान नहीं था, लेकिन उनकी जिंदगी का तो फलसफा ही था कि बड़े सपने देखो।
गरीब परिवार में जन्म लेने के कारण उन्होंने घर-घर जाकर अखबार बेची, लेकिन पढ़ाई नहीं छोड़ी। वे रातभर लालटेन की रोशनी में पढ़ते थे। कलाम ने 1958 में अंतरिक्ष विज्ञान में मद्रास यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया। इसके बाद उन्होंने डिफेंस रिसर्च डेवलपमेंट लेबोरेट्री में भी काम किया। इसके बाद राष्ट्रपति तक का सफर और इस बीच 20 किताबों को लिखना। उन्होंने जो भी जिम्मेदारी ली, उसे नई परिभाषा दी।
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में कलाम उनके वैज्ञानिक सलाहकार थे। उन्होंने कलाम को मंत्री बनने का ऑफर दिया था, लेकिन कलाम ने मना कर दिया। पोखरण में किए गए न्यूक्लियर टेस्ट में कलाम ने अहम भूमिका निभाई थी। बाद में एनडीए की सरकार ने उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया और इसके बाद व्यापक समर्थन मिलने के बाद वह देश के 11वें राष्ट्रपति बने। सर्वसुलभ होने के कारण उन्हें आम लोगों का राष्ट्रपति कहा गया।
शिलांग में आईआईएम के छात्रों को लेक्चर देने के दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा और बेथनी अस्पताल में उनका निधन हो गया। मैं दो दिन से खबरों से दूर था और मंगलवार की सुबह ऑफिस पहुंचने पर जैसे ही मैंने bhaskar.com टाइप किया मुझे स्क्रीन पर विश्वास ही नहीं हुआ। ध्यान से देखा तो हेडिंग था 'Live: पालम एयरपोर्ट पहुंचा कलाम का पार्थिव शरीर।' दूसरी हेडिंग थी, 'कलाम को आखिरी सलाम देने एयरपोर्ट पहुंचे प्रधानमंत्री।'ह ऐसी हेडिंग है जिसे पढ़कर मेरे पास शब्द ही नहीं बचे और मजबूरी ऐसी थी कि इसे बदलने के लिए नया एंगल भी नहीं खोज सकता था।
कलाम को आखिरी सलाम।

इसे आप यहां भी पढ़ सकते हैं... http://www.bhaskar.com/news/UP-tribute-to-inspirational-man-apj-kalam-5066738-NOR.html

Tuesday, 21 July 2015

ओल्ड मॉन्क लवर्स... या बदलता यंगिस्तान

रम पीने वालों के लिए बुरी खबर है। खासतौर पर ओल्ड मॉन्क लवर्स के लिए। व्हिस्की के प्रिमियम ब्रांड जॉनी वॉकर, ब्लंडर्स प्राइड, इंपिरियल ब्लू और रॉयल स्टेज पीने वालों के लिए भी यहां खबर है। हां, 'आई एम नॉट अ पार्टी एनीमल। ही ऑर शी इनसिस्ट मी। आई ड्रिंक जस्ट टू हैव अ गुड टाइम। आई एम अ गुड गर्ल/ब्वॉय। डोन्ट माइंड स्टिरियोटाइप गार्जियन लैक्चर।' ऐसी बातें करने वाले यंगिस्तान के लिए अच्छी या बुरी खबर है वे खुद डिसाइड करें। यंग इंडिया किस रास्ते से आगे बढ़ रहा है, इसकी भी रिपोर्ट है। यहां पढ़िए...

इंडिया को आज कल यंगिस्तान कहते हैं। कहें भी क्यों न। एक रिपोर्ट के अनुसार, यहां प्रति पांच व्यक्ति में एक शख्स युवा है। वहीं, साल 2020 तक भारत दुनिया का सबसे युवा देश बन जाएगा, जहां नौजवानों की आबादी करीब 64 फीसदी हो जाएगी। अब एक दूसरी रिपोर्ट की बात करते हैं। मेट्रो शहरों में लगभग 45 फीसदी युवा महीने में 4-5 बार ड्रिंक करते हैं। वहीं, 19-26 साल के यूथ 60 फीसदी एल्कोहल कंज्यूम कर जाते हैं। पब और बार के 80 फीसदी कस्टमर की उम्र 25 साल के आस पास है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल जनसंख्या के मामले में हालांकि, भारत चीन से पीछे हैं, लेकिन 10 से 24 साल की उम्र के 35.6 करोड़ लोगों के साथ भारत सबसे अधिक युवा आबादी वाला देश है। अब एक तीसरी रिपोर्ट भी देखिए। अपने जीवन के 60 बसंत देख चुका रमों का राजा 'ओल्ड मॉन्क' बुरे दौर से गुजर रहा है। इसकी बिक्री लगभग आधी हो गई है। इसे चाहने वाले सोशल साइट्स पर इसे बचाने के लिए कैंपेन चला रहे हैं और इसे बचाने की कोशिश में इसे ज्यादा कंज्यूम करने की अपील कर रहे हैं। 

ये यंग इंडिया है, जो आधुनिकता की रेस में उसेन बोल्ट की तरह है। लेकिन, विडंबना है कि वे खाता कम और दौड़ता ज्यादा है। वह अल्कोहल का भी डाई हार्ट लवर्स हो सकता है। खुद को पाक-साफ बताते यह दूसरों के इनसिस्ट करने पर एल्कोहल पीने की बात करते हैं, लेकिन कुछ ही पल बाद कहते हैं कि थोड़ी सी ही तो पी है, कौन सा जुर्म कर दिया। आई एम अ गुड गर्ल ऑर ब्वॉय। ये यंगिस्तान बॉटल के बारे में बेहिचक बात करता है। पैग के बारे में दोस्तों से पूछता है। किसी का बर्थ डे हो या कोई मैच, एग्जाम की शुरुआत हो या अंत, बोरियत मिटानी हो या उदासी को दूर करना हो, कितनी भी बड़ी परेशानी हो या खुशी, ये पीते हैं और छक कर पीते हैं। वे कहते हैं, वी आर एंजाइंग अवर लाइफ इन डैट टाइप। लीव फ्री एंड थिंक बिग। डोंट माइंड स्टिरियोटाइप गार्जियन लैक्चर। लेकिन, जहां बात होती है डू बेस्ट की वहां वह घनचक्कर में पड़ जाते हैं।  

अब आते हैं 60 साल के रमों के राजा ओल्ड मॉन्क पर। इंडियन आर्मी से आम आदमी तक की दूरी तय करने में इसे काफी साल लग गए। फिर, जब पहुंचा तो छा गया। मीडिल इनकम और फैमिली वालों की यह पहली पसंद है। देखते ही देखते लोग इसके डाई हार्ट लवर्स हो गए। लेकिन, आज कल ओल्ड मॉन्क के बुरे दिन हैं।  साल 2005 में इसकी जितनी सेलिंग थी उसकी आधी हो गई है। 

अब आप ये सोचते होंगे की ओल्ड मॉन्क के फैन कम होते जा रहे हैं और इसके चाहने वाले किसी दूसरी ब्रांड की तरफ जा रहे हैं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। लोगों ने रम पीना ही कम कर दिया है। यूरो मॉनिटर के हिसाब से भारत में जहां वाइन का कंजप्शन 6 फीसदी और बियर का 8 फीसदी बढ़ा है, वहीं रम का मार्केट 1.5 फीसदी घटा है। व्हिस्की के प्रीमियम ब्रांड जॉनी वॉकर, ब्लंडर्स प्राइड, इंपिरियल ब्लू और रॉयल स्टेज लोगों को ज्यादा अट्रैक्ट कर रहा है। इसके कारण ही ओल्ड मॉन्क घाटे में चल रहा है। 

अब आते हैं ओल्ड मन्क के फैन्स की तरफ। मेरे एक सीनियर हैं, वह भी इसके जबरदस्त फैन हैं। उन्हें जब पता चला कि ओल्ड मॉन्क घाटे में चल रहा है और कुछ ऐसा ही बाजार रहा तो जल्द ही बंद जाएगा तो उन्होंने बकायदा दो पेटी का ऑर्डर कर दिया। इसके साथ ही इसे सेव करने के कैंपेन में अपनी हिस्सेदारी करते हुए कमेंट किया कि 'वी कंज्यूम मोर फॉर लॉन्ग लाइफ ऑफ अवर बेस्ट टेस्ट रम। सीनियर के मुताबिक उन्हें सबसे पहले ओल्ड मॉन्क उनके पापा ने पिलाया था, ये कहते हुए कि 'मर्दों वाली ड्रिंक पिया करो।' इसके बाद वह इसके फैन हो गए। नवाबों के शहर लखनऊ में मोहन मिकिंस इसे बनाता था और लोग यहां से लगेज कम और ओल्ड मॉन्क ज्यादा ले जाते थे।

सोशल साइट्स पर इसके लिए चल रहे कैंपेन में लोगों के स्टेट्मेंट पढ़ कर और मजा आया। चूंकि मैं इसका फैन नहीं हूं इसलिए उस पेज का लिंक नहीं डाल रहा हूं, लेकिन यकीन मानिए ओल्ड मॉन्क लवर्स ने अपने कमेंट में दिल के जज्बात उतार रखे हैं। मैं यह सोच रहा हूं कि क्या किसी खाने-पीने जैसी चीज से मैं इतनी मोहब्बत कर पाऊंगा। सच में ये प्यार है जो किसी से भी हो सकता है। अब वह ओल्ड मॉन्क ही क्यों न हो। 

Sunday, 19 July 2015

किसानों के आइकन बने हैं अमिताभ बच्चन, फिल्म की स्क्रिप्ट बन कर न रह जाए ये?

जरा सोचिए! भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान विश्वनाथन आनंद को बना दिया जाए। किसी गैंगेस्टर को शांति का नोबल पुरस्कार दे दिया जाए। एक भी फिल्म नहीं देखना वाला सत्यजित रॉय पर किताब लिख दे। किसी राजनेता को बॉलीवुड का ब्रांड एंबेस्डर बना दिया जाए। ...तो आपको कैसा लगेगा? इसे छोड़िए। अब ये सोचिए कि अमिताभ बच्चन का नाम आते ही आपकी आंखों के सामने उनकी कौन सी तस्वीर बनती है। हीरो वाली ही न! अब जरा किसान अमिताभ बच्चन के बारे में सोचिए। 'सूर्यवंशम' फिल्म के सीन्स दिमाग में आएं क्या?

भारत सरकार ने हाल ही में डीडी किसान चैनल लॉन्च किया है। बताया जा रहा है कि यह चैनल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपना था। अब चैनल की रीच बढ़ाने के लिए उसकी मार्केटिंग और ब्रांडिग करनी ही पड़ेगी। इसके लिए एक ऑइकन लीडर की भी जरूरत पड़ेगी जो इसे लीड करे। ऐसे में आपको किसका नाम सूझेगा या आप किसे देखन चाहेंगे। जरा सोचिए! अमेरिका के प्रमुख निवेश सलाहकार और लोकप्रिय लेखक जिम रोजर्स या पंजाबी कृषि विशेषज्ञ प्रोफेसर एसएस गिल या फिर ह्रासमान प्रतिफल नियम (Law of Diminishing Returns) मांग का नियम, पूर्ति का नियम बताने वाले विशेषज्ञ को। डीडी किसान चैनल की रीच बढ़ाने के लिए भारत सरकार को सबसे बड़ा नाम सुझा है अमिताभ बच्चन का। इसके लिए उन्हें 6.31 करोड़ रुपए भी दिए गए हैं। 

अब एक्टर अमिताभ बच्चन से बाहर निकलकर किसान अमिताभ के बारे में सोचिए। है न थोड़ा आश्चर्य करने वाली चीज। वैसे किसान चैनल का ब्रांड एंबेस्डर होने से बिगी बी किसान नहीं बने हैं, वह कागजीतौर पर भी किसान हैं। उनके पास लखनऊ के काकोरी के मुजफ्फरनगर चौधरी खेड़ा में करीब 33 बीघा जमीन है। इसकी कीमत करीब 67 लाख रुपए प्रति बीघा बताई गई है। इसे उनके जीजा की देखरेख में शाहजहांपुर का एक परिवार संभालता है। आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि इस साल ओलावृष्टि और बारिश से जब किसानों की 70 फीसदी फसल बर्बाद हो गए तो भी बिग बी के खेतों के फसल 95 फीसदी तक सुरक्षित काट लिए गए थे। हैं न वह अच्छे किसान!

जब बुंदेलखंड में किसान सुसाइड कर रहा था, जब महाराष्ट्र के किसान मुआवजे की मांग को लेकर धरना दे रहे थे और दिल्ली में किसान गजेंद्र, केजरीवाल की सभा में सुसाइड कर रहे थे, उसी बीच बिग बी के खतों की फसलें भी चर्चा में थी। हालांकि, बिग बी ने खुद जाकर खेती नहीं की थी, बल्कि एक किसान परिवार को खेती के लिए लगाया था और उसे खेती के लिए आवश्यक सभी जरूरी चीजें समय पर उपलब्ध कराई गई थीं। वहां पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति को फॉलो किया जाता है, जिसके लिए जमकर पैसा भी खर्च किया जाता है। फिर खेती बेहतर क्यों न हो? 

उचित संसाधन और अच्छी कृषि पद्धति से तो फसलों की अच्छी पैदावर की जा सकती है, लेकिन इसके लिए पैसों की भी जरूरत होती है। अब ऐसे किसान जो एक सीजन की खेती से निराशा मिलने पर सुसाइड कर ले रहे हैं वह बिग भी की तरह कैसे इन्वेस्ट कर पाएंगे। रोल मॉडल ऐसा होना चाहिए जो अपने बीच का हो। जिसे देख कर वह इंस्पायर हों कि यह हमारे बीच से ही निकल कर बेहतरीन काम किया है और बुलंदियों को छुआ है। आइकन किसी को थोपा नहीं जा सकता है। बेहतर होता किसी किसान को रोल मॉडल बनाया जाता, एक प्रधान सेवक के तौर पर। जिससे सच में लगता कि भारत कृषि प्रधान देश है और आने वाले समय में यहां की अर्थव्यवस्था कृषि ही मजबूत करेगी। 

खैर यह तो भविष्य ही बताएगा कि किसानों के आइकन बने अमिताभ बच्चन से कुछ फायदा भी होगा या किसी फिल्म की स्क्रिप्ट ही बनकर रह जाएगा...
  


Thursday, 16 July 2015

मोदी जी गंगा पुत्र होते हुए 10 हजार रुपए प्रति सेकेंड की कीमत पर काशी आएंगे!

आदरणीय प्रधानमंत्री मोदी जी

गंगा पुत्र जी, देश की जनता को आपसे बहुत उम्मीद है। रिकॉर्डतोड़ वोट और सांसदों के साथ आप देश के प्रधानमंत्री बने हैं। देश को संक्रमण काल से बाहर निकालने की आपने बात कही है। आप ने ही कहा है कि हम विश्व गुरु बनेंगे। गरीब से गरीब का गुणात्मक विकास होगा। सरकारी योजनाएं लाइन में खड़े अंतिम व्यक्ति तक पहुंचेंगी। सभी चीजों का डिजिटलाइजेशन ऐसा होगा कि डायनासोर की तरह करप्शन इस देश से गायब हो जाएगा। लोग बुलेट ट्रेन की तेजी से 'दिन दूना और रात चौगुना' तरक्की करेंगे। 

मान्यवर, ये कैसी विडंबना है कि गंगा पुत्र ही काशी नहीं पहुंच पा रहे हैं। विकास रूपी जहाज में उड़ते हुए आप विश्व के देशों की यात्राएं कर रहे हैं, लेकिन अपने ही संसदीय क्षेत्र नहीं पहुंच पा रहे हैं। एक ट्रॉमा सेंटर का उद्घाटन क्यों नहीं हो पा रहा? आप तो चाय बेचकर और काफी मुफलिसी में संघर्ष कर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हैं, फिर आप पानी की तरह बारिश में बहते पैसे को कैसे देख सकते हैं।

16 जुलाई को भी आपका वाराणसी का दौरा था। बारिश के प्रभाव को रोकने के लिए व्यापक इंतजाम किए गए थे, लेकिन इसी दौरान एक मजदूर की करंट से मौत हो गई। वह भी उसकी जो आपके मंच पर फूल लगा रहा था ताकि आपको अच्छी खुशबू मिले। हां यह बात दिगर है कि वाराणसी की जनता गंदगी में जीने की आदी हो चुकी है। उस निर्णय का स्वागत है जि‍समें आपने कहा कि जहां हादसे में मृत मजदूर का शव रखा है, वहां से आप किस तरह अच्छी बातें कर सकते हैं। अब जरा उनके बारे में भी सोचिए जो पैसों के अभाव में मर रहे हैं।

जरा आप चोरी से बनारस आइए। वही पुराने नरेंद्र दामोदर दास मोदी बनकर अपने संसदीय क्षेत्र की गलियों में घूमिए। देखिए कि लोगों को चलने के लिए सड़कें नहीं हैं। वहां कितनी गंदगी फैली है। उस गंगा को देखिए, जिसे आपने अपनी मां कहा था। झाड़ू लगाकर देश में आपने जहां स्वच्छता की अलख जगाया थे, उसके ठीक बगल में होते कब्जे को देखिए। जैसा आप कहते थे, 'मुझे वोट दीजिए और फिर देश की स्थिति देखिएगा, वैसे ही हम कहते हैं कि आप एक बार आम नागरिक की तरह आइए और यहां के हालात देखिए।' 

मोदी जी, क्या आपको पता है कि बीते चार बार के ट्रॉमा सेंटर के उद्घाटन की तैयारियों में तकरीबन 33 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं।  इसमें मंच, टेंट, सिक्युरिटी, पीएम प्रोटोकॉल और मेहमाननवाजी के खर्च शामिल हैं। इतनी रकम में बनारस में गरीब परिवारों के लिए 660 घर बन सकते थे। या फिर 33 हजार टॉयलेट भी बनाए जा सकते थे। 1000 से ज्यादा घरों में एक दिन की बिजली सप्लाई हो सकती थी क्योंकि गुरुवार के दौरे के लिए 1.4 मेगावॉट की बिजली पैदा करने वाले डीजल जनरेटर लगाए गए थे। इतने पैसे की बर्बादी आप कैसे कर सकते हैं। 

मैं समझ ही नहीं पा रहे ये आपके कार्यकाल में ऐसा कैसे हुआ है। इस कार्यक्रम में आप पर तकरीबन 10 हजार रुपए प्रति सेकेंड के हिसाब से खर्च होना था, जो आप नहीं आए तो उसका कुछ फीसदी बच गया। आप जैसे इतने नि‍चले स्तर से ऊपर तक आने वाले व्यक्ति पर इतना खर्च होगा तो क्या होगा? 

आप काशी को क्योटो बनाना चाहते हैं। विश्व के इस पुरातन शहर को दुनिया का आधुनिकतम और सुंदर शहर बनाना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए यह जरूरी नहीं कि आप प्रति सेकेंड 10 हजार रुपए खर्च करके वहां आए। ये तो मस्ती से जीने वालों का शहर है। वहां आधे भरे पेट से रहने वाले भी खुशी से हर हर महादेव करते हुए मिल जाते हैं। रईस और गरीब दोनों एक साथ चाय की चुस्‍की और पान के बीच बतकुच्चन करते हैं। सर, आप प्रधानमंत्री बनकर नहीं बस एक आम नागरिक बनकर आइए और कुछ ऐसा करिए कि मुझ जैसे को भी आप पर विश्वास हो जाए। 

Wednesday, 8 July 2015

इन भारतीयों की अपनी कहानी है, जिसके अनुसार पाकिस्तानी हैं

जरा आप सोचिए, विदेश में रहने वाले अपने किसी रिश्तेदार से मिलने आप गए हों और आपका पासपोर्ट खो जाए। आप आर्थिक, सामाजिक और पॉलिटिकल रूप से इतने सक्षम न हों कि भारत से नया पासपोर्ट बनवा लें। फिर भारत लौटने के लिए आपको उस देश से गलत तरीके से पासपोर्ट बनवाना पड़ा। जब आप लौटकर अपने देश आएं तो आपकी नागरिकता को स्वीकार न किया जाए। फिर आप क्या करेंगे? आप भारतीय होकर भी कागजीतौर पर  भारतीय नहीं होंगे।

ऐसी ही कहानी है यूपी के रामपुर, कानपुर शहर, बरेली, शाहजहांपुर, अलीगढ़ और आगरा में रहने वाले दर्जनों परिवारों की। इनमें से सबकी अपनी कहानी है और उसी के अनुसार वे पाकिस्तानी हैं।

यूपी के रामपुर के रहने वाले सिफत उल्लाह खान पाकिस्तान में रहने वाले अपने नाना के घर गए थे। मौजमस्ती के दौर में उनका पासपोर्ट कहीं गुम गया। काफी प्रयास के बाद भी जब वह नहीं मिला तो उन्होंने भारत से दूसरा पासपोर्ट मंगवाने का प्रयास किया, लेकिन वह असफल रहे। अब भारतीय थे तो आखिरी कोशिश भी की। उन्‍होंने भी जुगाड़ टेक्नोलॉजी की। उन्होंने पाकिस्तान का फर्जी पासपोर्ट बनवा लिया और चले आए अपने देश। उन्हें पता नहीं था कि उनका यही जुगाड़ उनके लिए मुसीबत खड़ी कर देगा। अब भारत में उन्हें पाकिस्तानी माना जाता है। वह वीजा पर यहां रहते हैं और सरकार से नागरिकता की लगातार मांग कर रहे हैं। 

फरजाना बी की शादी पाकिस्तान में हुई, लेकिन पति ने तलाक दे दिया तो वह वापस अपने घर आ गई। लेकिन, यहां की सरकार ने उन्हें भारतीय मानने से इनकार कर दिया। अब वे अस्थायी वीजा पर यहां रही हैं और स्थायी वीजा की मांग कर रही हैं।

अब यूपी सरकार के एक फैसले ने उन्हें फिर से भारतीय होने का मौका दिया है। गृह विभाग ने प्रदेश के छह जिलों के जिलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों को चिट्ठी लिखकर पाकिस्तानी नागरिकता पर रह रहे लोगों की जानकारी लेने का निर्देश दिया है। इसके साथ ही उनकी समस्याओं को सुनने और उचित निस्तारण के लिए स्पेशल कैंप लगाने को भी कहा गया है। इससे ऐसे परिवार जो भारतीय नागरिकता प्राप्त करने या फिर दीर्घकालीन वीजा मिलने के लिए लंबे समय से प्रयासरत हैं, उनके लिए एक नई आस जगी है।

Tuesday, 7 July 2015

डिजिटल इंडिया और माता का ई-मेल वह भी फेसबुक पर

कल रात माता का मुझे ई-मेल आया है, माता ने मुझको फेसबुक पर बुलाया है...! चैटिंग-शैंटिंग करेंगे, माता से फोटो शेयर करेंगे, प्रोफाइल पिक्चर में माता ने शेर लगाया है...! गुड्डू रंगीला फिल्म का यह गाना हरियाणवी लोक गायक गजेंद्र फोगट ने गाया है। बड़ा ही कैची लगता होगा न ये गाना। कुछ अपना-अपना सा। हो भी क्यों न इसमें फेसबुक, चैटिंग, वेबसाइट और डॉट कॉम का जो जिक्र किया गया है। जिक्र क्या पूरे गाने में बस वही है ही।
फिल्में वास्तविकता की नींव पर ही बनती हैं। कुछ फिक्सन स्टोरी पर बनी फिल्म हो भी तो उसमें प्रेडिक्शन होता है। हां मुंगेरी लाल के सपनों की तरह नहीं, बल्कि फ्रांस और बॉलीवुड की फिल्मों की तरह।
अब वो जमाना गया जब लोग सुबह उठ कर अपने हाथ की हथेलियों को देखकर (कराग्रेवस्ते गाते थे) और उसके बाद अपने मां-पापा का पैर छूते थे। अब तो लोग सुबह उठकर फेसबुक नोटिफिकेशन देखते हैं और उसके बाद जरूरत के हिसाब से लाइक और कमेंट। गूगल और यूट्यूब पर ही ऑनलाइन सिद्धिविनायक मंदिर और काशी विश्वनाथ मंदिर का दर्शन करते हैं।ऑनलाइन ही चढ़ावा चढ़ाते हैं तो ऑनलाइन आशीर्वाद के लिए भी प्रयासरत होंगे। अब इसमें भगवान ऑनलाइन चैटिंग करने लगे तो है न कमाल की चीज। इस गाने के मुताबिक तो अरशद वारसी से माता फेसबुक पर चैटिंग करती हैं। और चैटिंग करती होंगी तो आशीर्वाद भी देती होंगी। तभी तो 10 साल बाद उनकी प्रेमिका कम पत्नी ज्यादा उन्हें दोबारा मिल जाती हैं। वह भी तब जब वह उसकी मौत का बदला ले रहे होते हैं।
हाल ही में हुए सर्वे में देखा गया है कि मोबाइल यूज करने में यूपी इंडिया में नंबर वन है। यहां 86.63 फीसदी मोबाइल यूजर्स हैं। वहीं गृहमंत्री राजनाथ सिंह के संसदीय क्षेत्र लखनऊ में तो 50 फीसदी छात्र ट्विटर पर हैं, जबकि राष्‍ट्रीय औसत 44.1 फीसदी है। है न आश्चर्य करने की चीज... टीसीएस द्वारा 14 भारतीय शहरों के हाईस्कूल के 12,365 छात्र-छात्राओं में कराए गए GenY सर्वे 2014-15 में यह बात सामने आई है कि करीब 75 फीसदी लोग रोजाना एक घंटा ऑनलाइन रहते हैं। इसी सिलसिले में लखनऊ में कराए गए सर्वे में तकनीक के इस्तेमाल को लेकर लोग ज्‍यादा जागरूक दिखे। यहां पढ़ाई के लिए स्टूडेंट्स सबसे ज्यादा 48.6 फीसदी ई-बुक का उपयोग करते हैं, जबकि राष्‍ट्रीय औसत 37.8 फीसदी है। यहां 89 फीसदी छात्र सोशल नेटवर्किंग साइट्स का प्रयोग करते हैं, जबकि राष्‍ट्रीय औसत 84.5 फीसदी है।
यूपी का नाम जेहन में आते ही क्राइम, पॉलिटिक्स, अशिक्षा और बेरोजगारी ही सिर्फ दिखता होगा न। लेकिन, देखिए यूपी ही डिजिटल इंडिया में सबसे मजबूत है। नरेंद्र मोदी डिजिटल इंडिया के लिए प्रयास कर रहे हैं तो इसमें उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में अमूल्य योगदान देने वाला यूपी पीछे क्यों रहे। आखिर 71+2 सांसद जो हैं। है न गजब का डाटा।

सोशल साइट्स के जमाने में लोग जितने वर्चुअल होते जा रहे हैं उतना ही वहां क्राइम बढ़ रहा है। आए दिन ऐसी वारदातें सामने आ जाती हैं जिसमें कहीं न कहीं फेसबुक-व्हाट्सऐप और ट्विटर से रंजिश पनपी हो। और ऐसे में पुलिस प्रशासन के इकबाल को खतरा।
अब वहां पर भी शक्ति की देवी आ जाएं तो मामला थोड़ा कम हो सकता है। आखिर में हर मुश्किल में माता के पास ही तो जाते हैं।
तो आप भी तैयार हो जाइए फेसबुक पर माता से दोस्ती करने के लिए। हां इस बात का जरूर ध्यान रखिएगा कि प्रोफाइल पिक्चर में शेर ही हो, उसके पीछे कोई गोरी/काली मैम न हो!

इसे आप यहां भी पढ़ सकते हैं... http://www.bhaskar.com/news/UP-satire-on-guddu-rangila-song-and-facebook-digital-india-concept-5045215-NOR.html

Friday, 3 July 2015

'मुस्कुराइए' आप UP में हैं, यहां की पुलिस जानवरों-इंसानों में फर्क नहीं करती

'मुस्कुराइए' आप UP में हैं, यहां की पुलिस जानवरों-इंसानों में फर्क नहीं करती




मुस्कुराइए आप यूपी में हैं। यहां की पुलिस सभी काम छोड़कर अब भैंस, मुर्गी, कुत्ता, बकरी और चुड़ैल खोज रही है। यही नहीं लोगों को भी देखिए, पुलिस सही तरह से कार्रवाई नहीं करती है तो वे सीधा गवर्नर को चिट्ठी लिखते हैं... ओ सॉरी अब तो चिट्ठी वाला जमाना गया, मेल करते हैं... गवर्नर भी तेज तर्रार हैं, हो भी क्यों न सक्रिय राजनीति में कई कारनामे जो कर चुके हैं... वह सीधा अल्टीमेटम देते हैं कि फला दिन के अंदर मामले का खुलासा करना है तो करना है...
दुनिया रोज 10 फर्लांग भाग रही है तो खाकी वर्दी वाले क्यों पीछे रहे... वह 100 फर्लांग आगे भागते हैं.... महकमा जानता है कि ये सब मनुष्य ऐसी हरकत कर रहे हैं कि आगे चलकर जानवर ही बनेंगे तो वह अभी से क्यों न तैयारी कर लें... अब विभाग में आने से पहले ट्रेनिंग लिए हैं तो अगले जन्म की अभी से क्यों नहीं... तो शुरू हो गए हैं तैयारी में... रिजल्ट भी पॉजीटिव ही आया, डेढ़ साल में एक भैंस चोरी का पर्दाफाश कर ही दिया...
यूपी देश का सबसे बड़ा राज्य है और यहां के सीएम भी सबसे युवा हैं... अपना पद संभालते ही वह सुशासन और सिस्टम बदलने का वादा किए थे... इसके लिए ढेरों ट्रांसफर-पोस्टिंग हुई, कई अधिकारियों पर कार्रवाई भी हुई और नई व्यवस्था को अमलीजामा पहनाने का वादा भी हुआ... लेकिन, यहां लॉ एंड ऑर्डर तो डार्विन के सिद्धांत को भी अनफॉलो कर देता है... बार-बार कार्रवाई पर भी जस का तस बना है और कहती है मुस्कुराइए आप यूपी में हैं...
ऐसा नहीं है कि यह अभी का हाल है और युवा सीएम ही नकारा साबित हो रहे हैं... वेद प्रकाश शर्मा ने 70 के दशक में वर्दी वाला गुंडा लिखा था... एक मेरठ के पुलिस वाले पर... इसकी 8 करोड़ से ज्यादा कॉपियां बिक चुकी हैं... ये वर्दी वाले भी क्या करें ये तो नमक के सिपाही हैं, हां लमही वाले कहानीकार के शब्दों वाले नहीं... सरकार इन्हें जितने समय और जितने काम करने के एवज में नमक का वायदा करती है उससे ज्यादा समय लेती है तो ये भी रसगुल्ला के पीछे क्यों न भागे... 

यूपी में तो अब नेताओं को भी भैंस वाला नेता और मुर्गी वाला नेता कहा जाने लागा है... क्यों इसमें सच्चाई नहीं है क्या... जरा भैंस वाला मंत्री का नाम आते ही आप दिमाग पर जोर करिए... एक बड़े मंत्री की कई फोटो आपको दिख जाएगी और न दिखे तो गूगल बाबा की शरण में जाइए... दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा... बहरहाल, खाकी वर्दी वालों के बीच सफेद वर्दी वालों को नहीं ही घसीटना चाहिए, यहां से भी बेचारी खाकी पर कार्रवाई न हो जाए...

वैसे जिस तरह से हर दिन एक नया 'डे' होता है उसी तरह पर खाकी महकमे वालों को भी एक 'डे' बनाना चाहिए...
'एनिमल चोरी शिकायत दर्ज डे'... जैसे जनता दरबार लगता है वैसे इस दिन इन शिकायतों का भी दरबार लगे... और हां ये 'डे' सलाना नहीं मासिक, पाक्षिक या साप्ताहिक होनी चाहिए... आखिर मामले भी तो ज्यादा हैं न...
31 जनवरी को एक बड़े नेता की भैंस चोरी होती है...23 जून को एक विधायक की भी भैंस चोरी हो जाती है... फिर 27 जून को एक सफेदपोश नेता की मुर्गियों पर कोई हाथ साफ कर देता है...29 जून को बड़ी मेहनत से पैसा कमाने वाले व्यापारी के कुत्ते चोरी की शिकायत आती है... फिर 29 जून को एक नेता बकरी चोरी की शिकायत करते हैं... इसी बीच इलाहाबाद में चुड़ैल दिखने की शिकायत पर थाने की एक पूरी टीम उसकी खोज में लग जाती है... फिर कानपुर में चूहे के द्वारा इमरजेंसी बटन दबाने के बाद पहुंची पुलिस उसे खोजने में जुटी है... मामले इतने आ रहे हैं और कार्रवाई के लिए गवर्नर अल्टीमेटम दे रहे हैं तो एक 'डे' तो बनता ही है...

इसीलिए तो कह रहे हैं 'मुस्कुराइए' आप यूपी में हैं यहां की पुलिस जानवरों और इंसानों में फर्क नहीं करती है...

इसे आप यहां भी पढ़ सकते हैं... http://www.bhaskar.com/news/UP-satire-on-uttar-pradesh-police-politician-and-governor-5042073-NOR.html

Wednesday, 24 June 2015

अखिलेश को याद आए लैंगिक हमलों के शिकार मासूम

अखिलेश को याद आए लैंगिक हमलों के शिकार मासूम

सीएम अखिलेश यादव ने यूपी में बच्चों पर हो रहे लैंगिक हमलों (चाइल्ड एब्यूज) के मामले में पीड़ित को आर्थिक मदद देना का ऐलान किया है। यह एक सराहनीय कदम है। साल 2011 में ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में हर साल तकरीबन 7200 बच्चे यौन उत्पीड़न और शोषण का शिकार होते हैं। लेकिन, पुलिस और अस्पतालों के असंवेदनशील रवैये की वजह से ज्यादातर मामलों का खुलासा तक नहीं होता।
बच्चे समाज की नींव होते हैं। उनपर इस तरह के अत्याचार से वह कुंठा के दौर में चले जाते हैं और उनका भविष्य अधर में फंस जाता है। दिल्ली में दामिनी कांड के बाद आए रिपोर्ट के मुताबिक, देश में हो रहे यौन शोषण में नवजात शिशु भी शामिल हैं। हैरानी की बात तो ये है कि बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न सबसे ज्यादा घरों, स्कूलों और बाल आश्रमों में होता है। इसके बाद सरकार की योजनाएं बच्चों को ऐसी वारदातों से बचाने में कारगर साबित नहीं हो पाती।

ऐसे में यूपी सीएम की पहल काबिलेतारीफ है। उनकी कैबिनेट ये भी फैसला लिया है कि लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम 2012 के तहत लैंगिक हमले पर एक लाख रुपए, गंभीर लैंगिक हमले पर डेढ़ लाख रुपए, लैंगिक उत्पीड़न पर एक लाख रुपए और अश्लील प्रयोजनों के लिए बालक का उपयोग पर एक लाख रुपए पीड़ित को मिलेंगे।

Tuesday, 23 June 2015

कुपोषण या ब्लेक डेथ

कुपोषण किसी भी देश या राज्य के लिए सबसे ज्यादा शर्मिंदगी वाला शब्द है। किसी को उचित मात्रा में भोजन नहीं मिलना पूरे तंत्र को चोट करता है। विश्व बैंक ने इसकी तुलना 'ब्लेक डेथ' नामक महामारी से की है। जब भूख और गरीबी राजनीतिक एजेंडा की प्राथमिकता नहीं होती तो बड़ी तादाद में कुपोषण सतह पर उभरता है। इसका उदाहरण आप आंकड़ों में देख सकते हैं। साल 2011 में कराए गए 'हंगामा सर्वे' के अनुसार देश के 9 राज्यों के 112 जिलों में पांच साल से कम उम्र के 42 फीसदी बच्चे अब भी कुपोषण के शिकार हैं। वहीं, दो साल से कम आयु के कुल 59 प्रतिशत बच्चों का कद सामान्य ऊंचाई से बहुत कम है। यह किसी भी देश के लिए अत्यधिक चिंता की बात है। इसमें सबसे ज्यादा खराब हालत में कोई प्रदेश आता है तो वह है उत्तर प्रदेश।

आप किसी भी सार्वजनिक जगहों पर मां की गोद में मौजूद बच्चों से लेकर जीवन की अंतिम लड़ाई लड़ रहे लोगों को भूख मिटाने के लिए पैसे मांगते देखते होंगे। इनकी तादाद भी ऐसी है कि वे हर जगह देखने को मिल जाते हैं। आप एक को कुछ मदद दीजिए तो आपके सामने चार खड़े हो जाएंगे। एक सामान्य व्यक्ति यह सोचने को मजबूर हो जाएगा कि इन सबकी मदद करने पर कहीं उसे खुद किसी से पैसे मांगने की जरूरत न पड़ जाए। 

एक आंकड़े पर और नजर डालते हैं। नांदी फाउंडेशन नाम की एक समाजसेवी संस्था ने यूपी, बिहार, एमपी, राजस्थान और झारखंड में सर्वेक्षण कराया। स्वास्थ्य सूचकांक की दृष्टि से सबसे खराब समझे जाने वाले उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती और रायबरेली में 72.31 और 70.40 प्रतिशत, उड़ीसा के कोरापट में 68.86 फीसदी और झारखंड के दुमका में 63.65 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम पाया गया है। वहीं, रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के मुताबिक बस्ती, देवीपाटन और गोरखपुर मंडलों में मातृत्व मृत्यु दर (एमएमआर) 304, 366 और 302 है जो राष्ट्रीय औसत 190 तथा प्रदेश के औसत 258 से काफी अधिक है।

मातृत्व मृत्यु दर को दुनियाभर में जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य और पोषण का एक संकेतक के रूप में माना जाता है। इसका आकंलन प्रति लाख जीवित जन्मों पर किया जाता है। इसी तरह शिशु मृत्यु दर के मामलों में भी पूर्वांचल के जिलों की स्थिति बड़ी दयनीय है। पूर्वांचल के श्रावस्ती में 13 प्रतिशत, बलरामपुर में 11.7 प्रतिशत, सिद्धार्थनगर में 11.6 प्रतिशत तथा बस्ती और मिर्जापुर में 10 प्रतिशत बच्चों की उनके पांचवें जन्मदिन से पहले ही मौत हो जाती है। यह सूडान और सेनेगल जैसे अफ्रीकी देशों से अधिक है जहां यह आंकड़ा पांच प्रतिशत के आसपास है। है न ताज्जुब करने वाली बात।

अब एक अच्छी खबर। यूपी में बच्‍चों को कुपोषण से बचाने के लि‍ए राज्‍य पोषण मिशन के तहत संचालित योजनाओं को देखते हुए स्‍वास्‍थ्‍य वि‍भाग ने जि‍ला चिकित्सालयों में कुपोषण पुनर्वास केंद्र खोलने का फैसला लि‍या है। इसके तहत प्रत्‍येक जि‍ला चिकित्सालयों में 10-10 बेड आरक्षि‍त होगा। यहां पर कुपोषण ग्रसि‍त बच्‍चे को इलाज के दौरान हॉस्पिटल में 14 दि‍न रूकने का प्रावधान होगा।

कुपोषण पुनर्वास केंद्र में एडमि‍ट होने वाले बच्‍चों को इलाज के लि‍ए 14 दि‍न रखा जाएगा। इस दौरान बच्‍चों के साथ रहने वाली माताओं को 100 रुपए का स्‍टाइपेंड दि‍या जाएगा, जिससे उन्‍हें अस्‍पताल में रहने के दौरान कि‍सी प्रकार की आर्थि‍क दि‍क्‍कत न हो। कुपोषण पुनर्वास केंद्र के लि‍ए अलग से स्टाफ की तैनाती की जाएगी। इ‍समें डॉक्‍टर, चार स्टाफ केयर टेकर के रूप में, कुक और सफाई कर्मचारी शामि‍ल होंगे।

Wednesday, 13 May 2015

किसानों को ये मौसम की मार पड़ी या कानून की

भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि यहां की अर्थव्यवस्था की कुंजी खेती-किसानी के ही हाथों में हैं। जय जवान, जय किसान के नारे के साथ विकास की ट्रेन दौड़ाने वाले देश को साल 2015 में मौसम की मार का सामना करना पड़ा। भारी बारिश और ओलावृष्टि से अर्थव्यवस्था पूरी तरह से बेपटरी नजर आई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, चालू रबी फसल में इससे उत्तर प्रदेश सहित 13 राज्यों में 106 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फसल को नुकसान होने की रिपोर्ट है। ये वे प्रदेश हैं जिनका भारत में हरित क्रांति को सफल बनाने में सबसे ज्यादा योगदान रहा है। अब वहीं के अन्नदाताओं को खुद के लिए अन्न के लाले पड़े हुए हैं। वैसे ये तो हैं सरकारी आंकड़े, सभी जानते हैं कि धरातल पर कैसी भयावह स्थिति है।
एक और सरकारी आंकड़े पर नजर डालते हैं। फसलों की बर्बादी से हताश और निराश किसानों ने गरीबी, मुआवजे और सरकारी उदासीनता के आगे हाथ फैलाने से बेहतर मौत के रास्ते को ही चुन लिया। अकेले उत्तर प्रदेश में 37 किसानों की मौत का मामला सामने आया है। इसमें कुछ किसानों की मौत फसल बर्बाद होने से लगे सदमे से हुई जबकि कुछ ने नुकसान से परेशान होकर खुदकुशी कर ली। अकेले बरेली में ऐसे 17 मामले सामने आए। हालांकि, इस साल पूरे देश में कितने किसानों ने आत्महत्या की है, इसका ब्यौरा नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने अब तक जारी नहीं किया है।
केंद्र सरकार ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह की अगुवाई में मंत्रियों के अनौपचारिक समूह का गठन किया है। यह उन किसानों को वित्तीय सहायता सीमा पर वि‍चार करेगी, जिनकी फसल को बेमौसम बरसात और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से नुकसान पहुंचा है। इसके अलावा केंद्र ने राज्य सरकारों से प्रदेश आपदा राहत कोष (एसडीआरएफ) से किसानों को तत्काल वित्तीय सहायता देने को कहा था। इसमें वित्तवर्ष के दौरान उपयोग के लिए 5,270 करोड़ रुपए उपलब्ध कराए गए हैं।
अब आते हैं नियम और कानून पर। किसानी और खेती में नुकसान का सर्वे युनाइटेड प्रोविन्स के रेवेन्यू मैनुअल 1940 के लेशन 26 के नियमों के आधार पर होता है। इसमें जमीन के क्षेत्रफल के सर्वे का प्रावधान है। हालांकि, यह कानून तात्कालीन दौर में किसानों का लगान और राजस्व माफ करने के लिए बनाया गया था। बाद में किसानों के मुआवजे के लिए नुकसान का आंकलन भी इसी के आधार पर किया जाने लगा। इसकी जिम्मेदारी क्षेत्र के लेखपाल की होती है।
युनाइटेड प्रोविन्स के रेवेन्यू मैनुअल 1940 के लेशन 26 के नियम के मुताबिक सर्वे का आधार खेत नहीं बल्कि क्षेत्रफल होता है। इसका नुकसान कई किसानों को उठाना पड़ता है। इससे उन्हें सही मुआवजा नहीं मिल पाता। सामान्य जानकार भी यह समझ सकते हैं कि किसी भी प्राकृतिक या दैवीय आपदा से अलग-अलग खेतों में अलग-अलग नुकसान होता है। इस नियम के अनुसार, मुआवजे की रकम को खेतों की गिनती के आधार पर बांट दिया जाता है।
उदाहरण के तौर पर आप देखें कि यदि किसी गांव में तीन किसान हों और उनका 100 फीसदी का नुकसान हुआ हो तो मुआवजा 33-33 फीसदी बांटा जाता है। इसमें यह नहीं देखा जाता कि‍ कि‍सकी कि‍तनी फसल बर्बाद हुई है। इतना ही नहीं जैसे ही यह दायरा गांव से निकलकर ब्लॉक, तहसील और जिले तक पहुंचता है तो इसी फॉर्मूले के तहत नुकसान का आंकड़ा घटता चला जाता है। सीधे शब्दों में समझें तो नुकसान के लिए फंड की मांग करते वक्त उत्पादन लागत नहीं बल्कि क्षेत्रफल के आधार पर किया गया सर्वे होता है।
किसानों को फसल नुकसान से उबारने के लिए सरकार द्वार कई तरह की बीमा योजनाएं भी चलाई जा रही हैं। राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना, उच्चीकृत राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना, मौसम आधारित फसल बीमा योजना और इसके साथ ही प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना। लेकिन, ताज्जुब की बात है कि किसी भी राज्य के सभी किसानों को इस दायरे में लाने का इसका प्रतिशत काफी कम है।
अब बताते हैं बीमा क्लेम के कंडिशन के बारे में। पहली स्थिति में यदि बरसात नहीं होने से फसल की बुआई नहीं हुई है तो बीमा कंपनी राज्य सरकार की संतुष्टि के बाद किसान को उसका 25 फीसदी रकम देगी। वहीं, प्राकृतिक आपदा से खड़ी फसल का 50 फीसदी से ज्यादा नुकसान होने की स्थिति में राज्य सरकार के आंकलन के बाद बैंक 25 फीसदी तक क्लेम की रकम देगी। इसके बाद यदि फसल कटने के बाद नष्ट होती है और किसान 48 घंटे के भीतर संबंधित बीमा कंपनी को नुकसान की जानकारी देती है तो कंपनी 25 फीसदी तक क्लेम का भुगतान करेगी। हालांकि, तीनों कंडीशन में कई तरह के नियम और शर्तें हैं, जो छोटे अक्षरों में लिखे होते हैं। इसके दायरे में ज्यादातर किसान डिफाल्टर ही होते हैं और उन्हें कोई फायदा नहीं होता है। अंत में फिर आप पहले सेंटेंस पर जा सकते हैं कि किसानों को ये मौसम की मार पड़ी है या कानून की।

Tuesday, 12 May 2015

और भूकंप की भी आदत पड़ रही है...

और भूकंप की भी आदत पड़ रही है...

कहते हैं कि डर का सामना करने से वह खत्म हो जाता है। लेकिन, एक वाजिब सवाल यह उठता है कि क्या मौत के डर की भी आदत पड़ती है?
बीते 25 अप्रैल को नेपाल के काठमांडू में भूकंप आया। इसमें वहां 8 हजार से ज्यादा लोगों की जानें गईं और 25 हजार से ज्यादा लोग घायल हो गए। इसका असर भारत पर भी पड़ा और सरकारी आंकड़े के मुताबिक, लगभग 100 लोगों की मौत और सैकड़ों लोग घायल हुए थे। दो दिनों तक उत्तर भारत के कई जिलों में डर का आलम बना हुआ था और तरह-तरह की अफवाहें चल रही थी। कई जगह तो चांद के उल्टा निकलने तक की अफवाह फैलाई गई। इससे लोग अपने घरों को छोड़कर पूरी रात सड़कों पर बिताए और सलामती के लिए भगवान से प्रार्थना और खुदा से दुआ-ख्वानी की गई। भूकंप का असर किसानी और खेतों पर भी पड़ा और मक्के-गेहूं की फसल को भारी नुकसान पहुंचा। इसके बाद भूकंप एक गॉसिप प्वाइंट बन गया। धीरे-धीरे यह सिर्फ मीडिया रिपोर्ट और खबरों तक ही सीमित हो गया।

12 मई को एक बार फिर भूकंप का झटका लगा। इससे नेपाल में जहां 60, वहीं भारत में लगभग 25 लोगों की मौत हो गई। लेकिन, इस बार माहौल थोड़ा बदला हुआ था। जहां 25 अप्रैल को लोगों में दहशत का आलम था, वहीं इस बार लोग इसे एंजॉय कर रहे थे। जैसे लगा भूकंप भी मेले का वह झूला हो गया है, जहां ऊपर से नीचे आते वक्त एक दो सेकेंड के लिए शरीर में सनसनाहट होती है और बाकी समय सिर्फ और सिर्फ मजा। जैसे उस सनसनाहट का भी लोग भरपूर मजा लेते हैं, वैसे ही लग रहा था कि लोग इस बार भूकंप का मजा लिए हों। हालांकि, भूकंप की तिव्रता 7.3 मापी गई, जो कहीं से भी कमजोर नहीं था।
भूकंप के बाद लोग अपने-अपने इमोशन शेयर कर रहे थे। मैं यह कर रहा था, मैंने यह देखा, मेरा साथ यह इंसिडेंट हुआ, ब्ला-ब्ला। जैसे लगा लोगों को कुछ नया एंटरटनमेंट का साधन मिल गया है। कुछ अलग, कुछ डेयरिंग वो भी फ्री में। अब इससे बेहतर उन्हें क्या मिलेगा। मैंने किसी के चेहरे पर दहशत नहीं देखा। मुझे वह कहावत 100 फीसदी सच लगा कि खतरे का बार-बार सामने करने से डर खत्म हो जाता है।
अब जरा इसी मुद्दे पर शहरी और ग्रामीण आबादी पर गौर करिए। देखिए कितना अंतर समझ में आता है। शहरी आबादी का जहां डर खत्म होता है, ग्रामीण आबादी का डर वहीं से शुरू होता है। पहले भूकंप के झटके से मौत का डर और उसके बाद उससे खेती-किसानी पर पड़ने वाले असर से आर्थिक परेशानियों का डर। एक तरफ जहां बारिश और ओलावृष्टि ने गेहूं और मक्के की फसल को भारी नुकसान पहुंचाया है, वहीं रही-सही कसर को भकूंप ने पूरा कर दिया। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 60-70 फीसदी खेती को इसका नुकसान हुआ है।

बीते 25 अप्रैल को आए भूकंप के बाद केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय आपदा राहत कोष के दिशा-निर्देशों में संशोधन भी किया। इसके बाद प्राकृतिक आपदा से होने वाली मृत्यु के मामले में मुआवजे की राशि को 1.5 लाख रुपए से बढ़ा कर चार लाख रुपए कर दी गई है। यह भी जान लीजिए कि यह राशि प्रधानमंत्री राष्‍ट्रीय राहत कोष से मिलने वाले दो लाख रुपए के अतिरिक्‍त है। लेकिन, क्या सिर्फ मृतकों को मुआवजा देकर सरकार अपनी साख बचा सकती है? उनके लिए कुछ नहीं है जिनका इसमें सबकुछ तबाह हो गया है।
वहीं, एक वाजिब उंगली देश में पैदा होती उस भिन्नता पर भी खड़ी होती है जो शहरी और ग्रामीण लोगों में अंतर पैदा कर रही है। जहां शहरी आबादी में लोग इसे दो मिनट या कुछ घंटे का गॉसिप प्वाइंट बनाए थे, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह पूरे साल उनकी आर्थिक स्थिति को मुंह चिढ़ाने का सबब बनता दिखा। अब वह इसे कैसे बैलेंस करेंगे इस बारे में सोचन के लिए सरकार के पास भी समय नहीं है, क्योंकि अब देश में गरीबी मुद्दा नहीं बनता। देश को चाहिए मेट्रो सिटी और स्मार्ट सिटी। किसी भी शर्त पर। चाहें वह किसानों की मौत पर ही क्यों न हो।

इसे आप यहां भी पढ़ सकते हैं: http://www.bhaskar.com/news/UP-people-react-just-like-they-become-habitual-of-earthquake-4992004-NOR.html